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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-9-2 (384) 131 वनीपकपिंड... गृहस्थ-दाता की जहां भक्ति हो उसकी प्रशंसा करे तब वनीकपिंड दोष होता है... चिकित्सापिंड - छोटे -बड़े रोगों का निदान एवं चिकित्सा - दवाइयां बताने से... क्रोधपिंड - क्रोध (गुस्सा) दिखाकर जो आहारादि प्राप्त किये जाय, वह क्रोधपिंड कहलाता है... मानपिंड... अपनी जाति - कुल - ज्ञान - तप आदि का उत्कर्ष दिखलाने से... माया पिंड... आहारादि प्राप्ति के लिये माया-कपट करे तब मायापिंड दोष होता है... लोभपिंड... लोभ-लालच दिखलाकर जो आहारादि प्राप्त कीये जाय वह लोभपिंड... पूर्वपश्चात्संस्तवपिंड... आहारादि की.प्राप्ति के लिये साधु गृहस्थों के साथ अपना पूर्व (माता-पितादि का) परिचय दे या पश्चात् याने सास-ससुराल का परिचय दे तब यह पूर्वपश्चात् संस्तवपिंड... विद्यापिंड - विद्या के बल पर, जो आहारादि प्राप्त कीये जाय वह विद्यापिंड दोष है... 13. मंत्रपिंड - मंत्र - जाप के द्वारा जो आहारादि प्राप्त कीये जाय वह मंत्रपिंड कहलाता है.. ___ चूर्णपिंड - वशीकरण एवं संमोहन आदि के लिये जो चूर्ण का प्रयोग कीया जाय वह चूर्णपिंड.. - योगपिंड - अंजन (पादलेप) आदि योग के द्वारा जो आहारादि प्राप्त कीया जाय वह योगपिंड... मूलकमपिंड - जिस कार्य से गर्भ-पतन हो इत्यादि कार्य करने से “मूल' नाम का प्रायश्चित लगता है वह मूलकमपिंड दोष है... यह सोलह दोष आहारादि की प्राप्ति के लिये कीये जातें हैं अतः वे उत्पादन दोष कहलातें हैं... तथा यासैषणा के पांच दोष इस प्रकार हैं... संयोजना - स्वाद की लोलुपता से साधु आहारादि में दहिं, गुड आदि का संयोजन करे तब "संयोजना" दोष होता है... 2. प्रमाण - बत्तीस (32) कवल से अधिक आहार वापरने से प्रमाण दोष लगता है...
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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