________________ 194 2-1-2-2-4 (409) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन IV टीका-अनुवाद : वहां गृहस्थों से भरे हुए उपाश्रय में रहनेवाला साधु जब उच्चार (वडीनीति-स्थंडिल) के लिये पीडित हो, और रात्रि या विकाल आदि समय में उपाश्रय के द्वार को खोले, उस वख्त कोइ चौर या छिद्रान्वेषी दुश्मन (शत्रु) उपाश्रय में प्रवेश करे... तब उसको देखकर वह साधु ऐसा न कहे कि- यह चौर उपाश्रय में प्रवेश करता है... या प्रवेश करता नहि है... तथा छुपा हुआ है... आया है, बोल रहा है या बोल नहि रहा है... उसने चोरी की है, या अन्यने चोरी की है, उसके यहां चोरी हुइ है, या अन्य के यहां चोरी हुइ है इत्यादि... तथा यह चौर है, यह उसका सेवक है... यह शस्त्रवाला है, यह मारता है, इसने यहां ऐसा कीया है इत्यादि साधु न बोले... क्योंकि- ऐसा बोलने से उस चौर का मरण हो, या क्रोधवाला वह चौर हि उस साधु को मार डाले... इत्यादि दोषों की संभावना है... और यदि साधु कुछ भी न बोले तब वह गृहस्थ उस तपस्वी साधु को हि. चौर समझे इत्यादि... शेष पूर्ववत्... और भी वसति के दोष कहतें हैं... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- साधु रात्रि में या विकाल में मल-मूत्र का त्याग करने के लिए द्वार खोलकर बाहर आए और यदि उसी समय कोई चोर घर में प्रविष्ट होकर छुप जाए और समय पाकर चोरी करके चला जाए। ऐसी स्थिति में साधु उस चोर को चोर नहीं कह सकता है और न वो हल्ला ही कर सकता है। वह उस चोर को उपदेश दे सकता है। यदि उसने साधु का उपदेश नहीं माना तो उसके चोरी करके चले जाने के बाद गृहस्थ को मालूम पड़ने पर उस साधु पर चोरी का संदेह हो जाएगा, अतः साधु को ऐसे स्थान में नहीं ठहरना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि जिस मकान में मल-मूत्र के परिष्ठापन का योग्य स्थान न हो वहां साधु को नहीं ठहरना चाहिए तथा यह भी स्पष्ट होता है कि मल-मूत्र के त्याग के लिए साधु द्वार खोलकर जा सकता है एवं वापिस आने पर बन्द भी कर सकता है। इस सूत्र से यह भी स्पष्ट होता है कि साधु को ऐसे मकान में नहीं ठहरना चाहिए, जिसमें गृहस्थ का कीमती सामान पड़ा हो। इस तरह गृहस्थ के साथ ठहरने से साधु की साधना में अनेक दोष आने की संभावना है। इसलिए साधु को गृहस्थ से युक्त मकान में नहीं ठहरना चाहिए। - इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं...