________________ 388 2-1-7-1-3 (491) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के लिये हि निमंत्रण करें... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में मकान ग्रहण करने सम्बन्धी अवग्रह का उल्लेख किया गया है। इसमें बताया गया है कि साधु अपने ठहरने योग्य निर्दोष एवं प्रासुक स्थान को देखकर उसके स्वामी या अधिष्ठाता से उस मकान में ठहरने की आज्ञा मांगे। आज्ञा मांगते समय साधु यह स्पष्ट कर दे कि आप जितने समय के लिए जितने क्षेत्र में ठहरने एवं उपयोग करने की आज्ञा देंगे उतने समय तक हम उतने ही क्षेत्र में ठहरेंगे। और यदि हमारे अन्य साधर्मिक साधु आएंगे तो वे भी उस अवधि तक उतने ही क्षेत्र में ठहरेंगे जितने क्षेत्र की आपने आज्ञा दी है। इससे स्पष्ट है कि कोई भी साधु बिना आज्ञा लिए किसी भी मकान में नहीं ठहरता है। उक्त मकान में स्थित साधु के पास यदि कोई साधर्मिक और समान सामाचारी वाला अन्य साधु अतिथि रूप में आ जाए तो वह अपने लाए हुए आहार-पानी का आमन्त्रण करके उनकी सेवा करे, परन्तु अन्य द्वारा लाए हए आहार-पानी का आमन्त्रण न करे। इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं- एक तो यह है कि साधु को अपने अतिथि साधु की स्वयं सेवा करनी चाहिए। इससे पारस्परिक प्रेम-स्नेह में अभिवृद्धि होती है। दूसरी बात यह है कि- साधु का परस्पर एक माण्डले में बैठकर आहार-पानी करने का सम्बन्ध उसी साधु के साथ होता है कि- जो परस्पर साधर्मिक, साम्भोगिक और समान आचार-विचार वाला है। अब असांभोगिक साधु के साथ कैसा व्यवहार रखना चाहिए इसका वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 3 // // 491 // से आगंतारेसु वा जाव से किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ साहम्मिया अण्णसंभोइआ समणुण्णा उवागच्छिज्जा जे तेण सयमेसित्तए पीढे वा फलए वा सिज्जा वा संथारए वा तेण ते साहम्मिए अण्णसंभोइए समणुण्णे उवनिमंतिज्जा नो चेव णं परवडियाए ओगिज्झिय उवनिमंतिज्जा / से आगंतारेसु वा, जाव से किं पुण तत्थुग्गहंसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ गाहावईण वा गाहा० पुत्ताण वा सूई वा पिप्पलए वा कण्हसोहणए वा नहच्छेयणए वा तं अप्पणो एगस्स अट्ठाए पाडिहारियं जाइत्ता नो अण्णमण्णस्स दिज्ज वा अणुपइज्ज वा सयं करणिज्जंति कटु, से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा, पुव्वामेव उत्ताणए हत्थे कटु