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________________ 502 2-3-27 (535) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन नदी के उत्तर तट पर, श्यामाक गृहपति के क्षेत्र में वैयावृत्य नामक यक्ष मन्दिर के ईशान कोण में शाल वृक्ष के कुछ दूरी पर ऊंचे घुटने और नीचा सिर कर के ध्यान रुप कोष्ट में प्रविष्ट हुए तथा उत्कटुक और गोदोहिक आसन से सूर्य की आतापना लेते हुए, निर्जल छट्ठ भक्त तप युक्त शुक्ल ध्यान करते हुए भगवान को निर्दोष, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण, निव्याघात, निरावरण, अनंत, अनुत्तर, सर्वप्रधान केवल ज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न हुआ। वे भगवान अर्हत्, जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शी, देव, मनुष्य और असुरकुमार तथा लोक के सभी पर्यायों को जानते हैं, जैसे कि- जीवों की आगति, गति, स्थिति, च्यवन, उत्पाद तथा उनके द्वारा खाए-पीए पदार्थों एवं उनके द्वारा सेवित प्रकट एवं गुप्त सभी क्रियाओं को तथा अन्तर रहस्यों को एवं मानसिक चिन्तन को प्रत्यक्ष रुप से जानते हुए देखते हैं। वे सम्पूर्ण लोक में स्थित सर्व जीवों के सर्व भावों को तथा समस्त पुद्गलों-परमाणुओं को जानते देखते हुए विचरते हैं। जिस दिन श्रमण भगवान महावीर स्वामी को केवल ज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न हआ उसी दिन भवनपति. वाण व्यन्तर- ज्योतिषी और वैमानिक देवों के आने से आकाश आकीर्ण हो रहा था और वहां का सारा आकाश प्रदेश जगमगा रहा था। तदनन्तर उत्पन्न प्रधान ज्ञान और दर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने केवल ज्ञान द्वारा अपनी आत्मा तथा लोक को भली भांति देखकर पहले देवों को ओर पश्चात् मनुष्यों को धर्म का उपदेश दिया। तत् पश्चात् केवल ज्ञान और दर्शन के धारक श्रमण भगवान महावीर ने गौतमादि श्रमणों को भावना सहित पांच महाव्रतों और पृथिवी आदि षट् जीव निकाय के स्वरुप का सामान्य प्रकार से तथा विशेष प्रकार से अर्द्धमागधी भाषा में प्रतिपादन किया। IV टीका-अनुवाद : सुत्रार्थ पाठसिद्ध होने से टीका नहिं हैं..... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में मनः पयार्य ज्ञान का वर्णन किया गया है। इस ज्ञान से व्यक्ति ढाई द्वीप और दो समुद्रों में स्थित पर्याप्त संज्ञी पधेन्द्रिय जीवों को मनोगत भावों को जान सकता है जिस समय भगवान ने सामायिक चारित्र स्वीकार किया उसी समय उन्हें यह ज्ञान प्राप्त हो गया और वे मन वाले प्राणियों के मानसिक भावों को देखकर जानने लगे। इससे यह स्पष्ट हो गया कि मनःपर्याय ज्ञान क्षेत्र एवं विषय की दृष्टि से ससीम है
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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