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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-27 (535) 501 पच महाव्रतानि सभावनानि षड्जीवनिकायान् आख्याति भाषते प्रसपयति, तद्यथा -पृथ्वीकाय: यावत् प्रसकाय: / / 535 // III सूत्रार्थ : क्षायोपशमिक सामायिक चारित्र ग्रहण करते ही श्रमण भगवान महावीर को मनः पर्याय ज्ञान उत्पन्न हुआ। जिसके द्वारा वे अढाई द्वीप, दो समुद्रों में स्थित संज्ञीपर्याप्त पञ्चेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को स्पष्ट जानने लगे। श्रमण भगवान महावीर ने प्रव्रजित होने के पश्चात् अपने मित्र ज्ञाति और स्वजन सम्बन्धि वर्ग को विसर्जित किया और उन सभी के चले जाने के बाद भगवान ने इस प्रकार का अभिग्रह प्रतिज्ञा धारण किया कि मैं आज से लेकर बारह वर्ष तक अपने शरीर पर ममत्व नहीं रखूगा और देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धि जो भी उपसर्ग उत्पन्न होंगे, उन सभी उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करुंगा, सदा क्षमा भाव रखूगा, और स्थिरता पूर्वक उन कष्टों पर विजय प्राप्त करुंगा अर्थात् उनको सहन करने में किसी प्रकार से खिन्न एवं अप्रसन्न नहीं होऊंगा। . / शरीर पर से ममत्व त्याग के अभिग्रह से युक्त श्रमण भगवान महावीर-जिस दिन दीक्षा ग्रहण की, उसी दिन शाम को एक मुहूर्त (48 मिनट) दिन रहते कुमार ग्राम पहुंचे। तदनन्तर शरीर के ममत्व और संस्कार का परित्याग करने वाले श्रमण भगवान महावीर अनुपम वसती के सेवन से, अनुपम विहार से, एवं अनुपम संयम, संवर, तप, ब्रह्मचर्य, क्षमा, निर्लोभता, समिति, गुप्ति, सन्तोष, कायोत्सर्गादि स्थान और अनुपम क्रियानुष्ठान से तथा सच्चरित के फलरुप निर्वाण और मुक्ति मार्ग-ज्ञान दर्शन-चारित्र के सेवन से युक्त होकर आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। इस प्रकार विचरते हुए श्रमण भगवान महावीर को देव, मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धि जो कोई भी उपसर्ग प्राप्त हुए वे उन सब उपसर्गों को खेद रहित, बिना दीनता के समभावपूर्वक सहन करते रहे। और वे मन वचन तथा काया से गुप्त होकर उन उपसर्गों को भली भान्ति सहन करते और उपसर्ग दाताओं को क्षमा करते तथा सहिष्णुता और स्थिर भावों से उन पर विजय प्राप्त करते थे। श्रमण भगवान् महावीर को इस प्रकार के विहार से विचरते हुए बारह वर्ष व्यतीत हो गए / तेरहवें वर्ष के मध्य में ग्रीष्म ऋतु के दूसरे मास और चौथे पक्ष में अर्थात् वैशाख शुक्ला दशमी के दिन सुव्रत नामक दिवस के विजय मुहूर्त में, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग आने पर दिन के पिछले पहर, जुम्भक नामक नगर के बाहर ऋजुवालिका
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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