________________ 286 2-1-3-2-7 (460) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मार्ग से भी न जाए। क्योंकि वे साधु को गुप्तचर समझकर उसे परेशान कर सकते हैं. एवं कष्ट भी दे सकते हैं। कभी अन्य मार्ग न होने पर जिस मार्ग पर सेना का पड़ाव हो उस मार्ग से जाते हुए साधु को यदि कोई सैनिक पकड़ कर कष्ट देने लगे तो उस समय उसे उस पर राग-द्वेष नहीं करना चाहिए। ऐसे विकट समय में भी उसे समभाव पूर्वक उस वेदना को सहन करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि साधु को अपने पैरों में लगी हुई मिट्टी को साफ करने के लिए वनस्पति काय की हिंसा नहीं करनी चाहिए। जैसे अपवाद मार्ग में मास में एक बार महानदी पार करने का आदेश दिया गया है, वैसे वृक्ष का सहारा एवं हरितकाय को कुचलते हुए चलने का आदेश नहीं दिया गया है, अपितु उसका निषेध किया गया है और वृक्ष का सहारा लेनेवाले को प्रायश्चित का अधिकारी बताया है। इस तरह साधु को वनस्पति काय की हिंसा न करते हुए एवं विषम मार्ग तथा सेना से युक्त रास्ते का त्याग करके सम मार्ग से विहार करना चाहिए। जिससे स्व एवं पर की विराधना न हो। - इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 7 // // 460 // से भिक्खू वा० गामा० दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिज्जा, ते णं पाडिवहिया एवं वइज्जा- आउसंतो ! समणा ! केवइए एस गामे वा जाव रायहाणी वा केवड्या इत्थ आसा हत्थी गामपिंडोलगा मणुस्सा परिवसंति ? से बहुभत्ते बहुउदे बहुजणे बहुजवसे, से अप्पभत्ते अप्पुदए अप्पजणे अप्पजवसे ? एयप्पगाराणि पसिणाणि पुच्छिज्जा, एयप्प० पुट्ठो वा अपुट्ठो वा नो वागरिज्जा, एवं खलु० जं सव्वद्वेहिं० // 460 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् अन्तरा तस्य प्रातिपथिकाः उपागच्छेयुः, ते प्रातिपथिका: एवं वदेयुः- हे आयुष्मन् ! श्रमण ! कीदृशः अयं ग्रामः वा यावत् राजधानी वा ? कीदृशाः अत्र अश्वाः हस्तिन: ग्राम पिण्डोलका: (भिक्षुका:) मनुष्याः परिवसन्ति ? ते बहुभक्ता: बहुजला: बहुजना: बहुयवसाः ? ते अल्पभक्ताः अल्पजला: अल्पजना: अल्पयवसाः वा ? एतत्-प्रकारान् प्रश्चान् प्रच्छेयुः, एतत्-प्रकारान् प्रश्नान् पृष्टः वा अपृष्टः वा न व्याकुर्यात्, एवं खलु० यत् सव्वार्थ:० // 40 //