________________ * श्री राजेन्द्र सबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-1-5-1-6 (480) 349 याचना करूंगा। तीसरी प्रतिमा-गृहस्थ का पहना हुआ वस्त्र लूंगा। चौथी प्रतिमा-उज्झित धर्मवाला वस्त्र लूंगा, जिसे अन्य शाक्यादि श्रमण न चाहते हों। इन प्रतिमाओं-अभिग्रहों को धारण करने वाला साधु अन्य साधुओं की निन्दा न करे तथा स्वयं अहंकार भी न करे, किन्तु जो जिनाज्ञा में चलने वाले हैं वे सब पूज्य हैं इस प्रकार की समाधि अर्थात् समभाव से विचरे। वस्त्र की गवेषणा करते हुए साधु को यदि कोई गृहस्थ कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! अब तो तुम चले जाओ। किन्तु मासादि के अन्तर से अर्थात् एक मास या दस दिन अथवा पांच दिन आदि के अनन्तर आप यहां आना तब साधु उस गृहस्थ के प्रति कहे कि आयुष्मन् गृहस्थ ! मुझे यह प्रतिज्ञापूवृक वचन सुनना नहीं कल्पता। अतः यदि तुम देना चाहते हो तो अभी दे दो। इस पर यदि गृहस्थ कहे कि आयुष्मन् श्रमण ! अभी तुम जाओ, थोड़े समय के अनन्तर आकर वस्त्र ले जाना। तब भी मुनि यही कहे कि आयुष्मन् गृहस्थ ! मुझे यह संकेत पूर्वक वचन स्वीकार करना नहीं कल्पता, यदि तुम देना चाहते हो तो इसी समय दे दो। तब गृहस्थ ने किसी निजी पुरुष या बहिन आदि को बुलाकर कहा कि यह वस्त्र इस साधु को दे दो। हम पीछे अपने लिए प्राणियों का समारम्भ करके और बना लेंगे। गृहस्थ के इस प्रकार के शब्दों को सुनकर पश्चात्कर्म लगने से उस वस्त्र को अप्रासुक तथा अनेषणीय जान कर साधु ग्रहण न करे। और यदि घर का स्वामी अपने परिवार से कहे कि जाओ इस वस्र को जल से धोकर और सुगन्धित द्रव्यों से घर्षित करके साधु को दे दीजिए... तब साधु उसे ऐसा करने से मना करे। उसके मना करने-निषेध करने पर भी यदि गृहस्थ उक्त क्रिया करके वस्त्र देना चाहे तो साधु उस वस्त्र को कदापि ग्रहण न करे एवं यदि शीतल अथवा उष्ण जल से धोकर देना चाहे और रोकने पर भी न रूके तो साधु उस वस्त्र को भी स्वीकार न करे। इसी प्रकार यदि वस्त्र में कन्दमूल आदि वनस्पति बान्धी हुई हो या रखी पड़ी हो तब उन्हे अलग कर के देना चाहे तो भी न ले। और यदि गृहस्थ साधु को वस्त्र दे ही दे तो साधु बिना प्रतिलेखना किए, बिना अच्छी तरह देखे। उस वस्त्र को कदापि ग्रहण न करे. कारण कि केवली भगवान कहते हैं कि बिना प्रतिलेखना के वस्त्र का ग्रहण कर्मबन्धन का हेतु होता है, सम्भव है वस्त्र के किसी किनारे में कुण्डल, हार, चान्दी, सोना, मणि यावत् रत्नावली आदि बंधे हुए हो अथवा प्राणी बीज और हरी सब्जी आदि बंधी हुई हों। इसलिए तीर्थंकरादि ने पहले ही मुनियों को आज्ञा प्रदान की है कि साधु बिना प्रतिलेखना किए इन वस्त्रों को ग्रहण न करे। IV टीका-अनुवाद : इस प्रकार पूर्व कहे गये और आगे कहे जाएंगे ऐसे उन आयतनों का अतिक्रमण करके जब भिक्षु याने साधु चार प्रतिमाओं के द्वारा कहे जानेवाले अभिग्रहों के साथ वस्त्र की गवेषणा करना चाहे तब यह जाने कि- पूर्व से हि संकल्पित वस्त्र की याचना करुंगा... यह पहली प्रतिमा... तथा देखे गये वस्त्र की हि याचना करूंगा, अन्य की नहि, यह दुसरी प्रतिमा.... तथा