________________ 432 2-2-4-1-1 (502) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 2 अध्ययन - 4 सप्तकक: - 4 सप्तैकक... शब्द... ' तीसरे सप्तैकक (अध्ययन) के बाद अब चौथे अध्ययन का प्रारंभ करतें हैं... यहां परस्पर यह अभिसंबंध है कि- यहां पहले अध्ययन में स्थान, दूसरे अध्ययन में स्वाध्यायभूमि तथा तीसरे अध्ययन में उच्चारादि की विधि कही... अब इस प्रकार की स्थिति में रहा हुआ साधु यदि अनुकूल या प्रतिकूल शब्द सुने तब वह साधु राग एवं द्वेष न करें... इस संबंध से आये हुए इस चौथे अध्ययन के नाम निक्षेप में "शब्द-सप्तैकक" ऐसा यह अध्ययन का नाम है... "शब्द" नाम के चार निक्षेप होतें हैं... नाम, स्थापना द्रव्य एवं भाव... इनमें नाम एवं स्थापना निक्षेप सुगम है अतः द्रव्य-शब्द निक्षेप का स्वरुप स्वयं ही नियुक्तिकार महर्षिश्री भद्रबाहुस्वामीजी कहतें हैं... __ नोआगम से द्रव्य शब्द याने शब्द स्वरुप को पाये हुए भाषा-वर्गणा के पुद्गल स्कंध कि- जो शब्द स्वरुप को पाये हुए है... तथा भाव-शब्द आगम से शब्द में उपयुक्त ऐसा साधु और नोआगम से अहिंसा आदि लक्षणवाले गुण... क्योंकि- वह साधु हिंसा- मृषावाद आदि की विरति स्वरुप गुणो से प्रशंसनीय होता है.. और कीर्ति भी फैलती है... जिस प्रकार चौतीस अतिशय से युक्त एवं चार मूल अतिशय स्वरुप संपदाओं से युक्त ऐसे अरिहंत परमात्मा इस विश्व में “अर्हन्' ऐसे शब्द से प्रख्यात हैं... ___अब नियुक्ति अनुगम के बाद सूत्रानुगम में सूत्र का शुद्ध उच्चार से कथन करना चाहिये और वह प्रथम सूत्र इस प्रकार है... I सूत्र // 1 // // 502 // से भिक्खू वा० मुइंगसहाणि वा नंदीसहाणि वा झल्लरीस० अण्णयराणि वा तह० विरूवरूवाइं सद्दाई वितताई कण्णसोयपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए। से भि0 अहवेगइयाई सदाइं सुणेड, तं०- वीणासदाणि वा विपंचीस० पिप्पीसगस० तूणयसद्दाणि वा पणय स० तुंबवीणियसद्दाणि वा ढंकुणसद्दाई वा अण्णयराइं तह० विरूवरूवाई सद्दाई वितताई कण्णसोयपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए। से भि0 अहवेगइयाई सद्दाइं सुणेड़, तं० ताल-सदाणि वा कंसतालसद्दाणि वा