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________________ 218 2-1-2-3-2 (422) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन साधु यदि फिसल पड़े या गिर पड़े तो वे उपकरण टूट जाएंगे, अथवा उस भिक्षु के फिसलने या गिर पड़ने से उसके हाथ-पैर आदि के टूटने का भी भय है और उसके गिरने से वहां पर रहे हुए अन्य क्षुद्र जीवों के विनाश का भी भय है, इसलिए तीर्थकरादि आप्त पुरुषों ने पहले ही साधुओं को यह उपदेश दिया है कि इस प्रकार के उपाश्रय में पहले हाथ से टटोल कर फिर पैर रखना चाहिए और यत्नापूर्वक बाहर से भीतर एवं भीतर से बाहर गमनागमन करना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. जब ऐसा जाने कि- यह उपाश्रय छोटा है, या छोटे द्वारवाला है, अथवा बहोत हि नीचा है अथवा गृहस्थों से भरा हुआ है, और ऐसे उपाश्रय में यदि साधु ठहरे, तब गृहपति ने अन्य भी चरक आदि को भी कितनेक दिन रहने के लिये निवास दीया हुआ हो, या तो वे चरकादि पहले से हि रहते हो, और बाद में साधुओं को वहां ठहरने के लिये निवास दे, और विशेष कार्य को लेकर यदि साधु वहां निवास करे, तब रात्री में लघुनीति (पेसाब) आदि के लिये बाहार निकलते या पुनः अंदर प्रवेश करती वख्त वहां रहे हुए चरक आदि के पात्र आदि उपकरणों का तुट-फुट (घात) विनाश न हो, या थोडा सा भी नुकसान न हो इस प्रकार अंधेरे में वह साधु अंधे आदमी की तरह हाथ आगे की और फैलाता हुआ गमनागमन (आना-जाना) करे इत्यादि... तथा चिलिमिली याने यवनिका (पडदा) तथा चर्मकोश याने पेर की पेनी का रक्षण करने का साधन, खल्लक आदि... अब वसति-याचना की विधि कहतें हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- अपनी आत्मा एवं संयम की विराधना से बचने के लिए साधु को रात्रि एवं विकाल के समय आवश्यक कार्य से उपाश्रय के बाहर जाते एवं पुनः उपाश्रय में प्रविष्ट होते समय विवेक एवं यत्नापूर्वक गमनागमन करना चाहिए। यदि किसी उपाश्रय के द्वार छोटे हों या उपाश्रय छोटा हो और उसमें कुछ गृहस्थ रहते भी हों या अन्य मत के भिक्षु ठहरे हुए हों तो साधु को रात के समय बाहर आते-जाते समय पहले हाथ से टटोल कर फिर पैर रखना चाहिए। क्योंकि ऐसा करने से उसको कहीं चोट नहीं लगेगी और न किसी से टक्कर खाकर गिरने या फिसलने का भी भय रहेगा। यदि वह अपने हाथ से टटोल कर सावधानी से नहीं चलेगा तो संभव है दरवाजा छोटा होने के कारण उसके सिर आदि में चोट लग जाए या वह फिसल पड़े या किसी भिक्षु की उपधि-उपकरण पर पैर पड़ जाने से वह टूट जाए और इससे उसके मन को संक्लेश हो और परस्पर कलह भी हो जाए। इस तरह समस्त दोषों से बचने के लिए साधु को विवेक एवं यत्नापूर्वक गमनागमन करना
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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