________________ 26 2-1-1-1-7 (341) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 7 // // 341 // से भिक्खू वा. जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा, बहवे समणा माहणा अतिहि किविण वणीमए पगणिय पगणिय समुद्दिस्स पाणाई वा, समारब्भ जाव नो पडिग्गाहिजा || 341 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः यावत् प्रविष्टः सन् सः यत् पुन: जानीयात् अशनं वा . बहून श्रमणान् ब्राह्मणान् अतिथि-कृपण-वनीपकान् प्रगणय्य प्रगणय्य समुद्दिश्य प्राणिनः वा समारभ्य यावत् न प्रतिगृह्णीयात् // 341 // III सूत्रार्थ : गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी इस बात का अन्वेषण करे कि- जो आहारादि बहुत से शाक्यादि भिक्षु, ब्राह्मण, भिखारी आदि को गिन-गिन कर या उनके उद्देश्य से जीवों का आरम्भ-समारम्भ करके बनाया हो, उसे साधु ग्रहण न करे। IV टीका-अनुवाद : वह भाव-साधु या साध्वी आहारादि के लिये गृहस्थों के घर में प्रवेश करे तब यह देखे कि- यह आहारादि श्रमण याने निर्गथ, शाक्य, तापस, गैरिक और आजीविक आदि के लिये या ब्राह्मणों के लिये या अतिथि, दरिद्र (कृपण), वनीपक (बंदीजन) आदि के लिये बनाया गया है या नही... जैसे कि- 2-3 श्रमण, 5-6 ब्राह्मण, इत्यादि प्रकार की संख्या की गिनती से त्रस एवं स्थावर जीवों का समारंभ करके जो आहारादि बनाया गया है वह बार-बार हो या एक बार हो फिर भी अनेषणीय आधाकर्म है ऐसा मानता हुआ वह साधु आहारादि प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करें। V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- किसी गृहस्थ ने शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, भिखारी आदि की गणना करके उनके लिए आहार तैयार किया है। जबकि- यह आहार साधु के उद्देश्य से नहीं बनाया गया फिर भी साधु के लिए अग्राह्य है। क्योंकि- बौद्ध भिक्षु एवं जैन साधु दोनों के लिए 'श्रमण' शब्द का प्रयोग होता है, अतः संभव है कि- गृहस्थ ने उस आहार के बनाने में उन्हें भी साथ गिन लिया हो। इसके अतिरिक्त ऐसा आहार ग्रहण करने से लोगों के मन में यह शंका भी उत्पन्न हो सकती है कि अन्य भिक्षुओं की तरह जैन साधु भी अपने लिए बनाए गए आहार को लेते हैं और उक्त आहार में से ग्रहण करने से-जिन व्यक्तियों के