________________ 942-1-1-6-4 (368) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है। जब कि- वे जलज एवं स्थलज नहीं हैं। परन्तु, उनके समान दिखाई देने के कारण उन्हें जलज एवं स्थलज कहा गया है। इसी तरह अप्रासुक शब्द अकल्पनीय शब्द के समान होने के कारण यहां उसे ग्रहण किया गया है। अब आहार की गवेषणा के सम्बन्ध में उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 4 // // 368 // से भिक्खू वा से जं पुण जाणिज्जा पिहयं वा बहुरयं वा जाव चाउलपलंबं वा असंजए भिक्खुपडियाए चित्तमंताए सिलाए जाव संताणाए कुटिंसु वा कुटिंति वा कुट्टिरसंति वा, उप्फणिंसु वा, तहप्पगारं पिहयं वा अप्फासुयं नो पडिग्गाहिज्जा / / 368 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा सः यत् पुन: जानीयात्- पृथुकं वा पहुकं वा अर्धपकं वा असंयतः भिक्षुप्रतिज्ञया चित्तवत्यां शिलायां यावत् सन्तानायां कुट्टितवन्तः वा कुदृन्ति वा कुट्टिष्यन्ति वा, उवाफणन् वा उत्फणन्ति वा, उत्फणिष्यन्ति वा तथाप्रकारं पृथुकं वा अप्रासुकं न प्रतिगृह्णीयात् || 368 // III सूत्रार्थ : साधु अथवा साध्वी ऐसा जाने कि- कोई असयंमी गृहस्थ साधु के निमित्त धाणी, चावल, परमर, पोंक आदि तथा चावल के अर्धपक्व कण सचित्तशिला पर अथवा बीजयुक्त, वनस्पति युक्त, चींटी-मकोडे युक्त या ओसवाली, सचित्तजलवाली, सचित्त मिट्टीवाली अथवा जीव युक्त शिला पर कूटकर, पीसकर तैयार किया हुआ है या तैयार कर रहे है या करेंगे अथवा छाज से झटक रहे है या झटकेंगे तो ऐसे चावल आदि वस्तुको अशुद्ध अकल्पनीय जानकर ग्रहण न करे || 368 // IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. भिक्षा के लिये गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर देखे किशालि आदि के लाज (धानी) बहुरय याने चिवडे जैसा खाद्यआहार, तथा अर्ध पके हुए शालि आदि के कणों को गृहस्थ साधुओं के लिये सचित्त शिला के उपर तथा बीजवाले हरित-वनस्पति के ऊपर या अंडेवाली भूमि के ऊपर एवं करोडीये के जालेवाली जगह में कुट्टा हो, या कूटते हो या कुटनेवाले हो अथवा पृथुक आदि सचित्त या अचित्त शिला के उपर कूटकर के साधुओं