________________ 434 2-2-4-1-2 (503) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कभी भी एक स्थान से दूसरे स्थान को न जाए। IV टीका-अनुवाद : वह साधु कि- जिसका स्वरुप पूर्व में कहा गया है ऐसा वह साधु यदि वितत, तत, घन एवं शुषिर स्वरुप चार प्रकार के वाजिंत्रो के शब्द सुने तब उन शब्दों को सुनने की प्रतिज्ञा याने इच्छा न करें... अथवा उन शब्दों को सुनने के लिये वहां न जावें... उनमें वितत वाजिंत्र हैं मृदंग, नंदी, झल्लरी आदि... तथा तत वाजिंत्र है वीणा विपंची वद्धीसक आदि... तंत्री... वाद्य... वीणा आदि के प्रभेद तंत्री के संख्या से जानें... तथा घन-वाजिंत्र-हाथ की ताली तथा कंसताल आदि प्रसिद्ध हि है... परंतु लित्तिका याने कंशिका, गोहिका याने भाणड कि- जो बगल में या हाथ में रखकर बजाये जानेवाला वाद्य-वाजिंत्र तथा किरिकिरिया याने वंशा आदि के कंबा से बनाया गया वाजिंत्र... तथा शुषिर वाद्य- इस प्रकार के हैं... शंख, वेणु-बंशरी इत्यादि परंतु खरमुखी याने तोहाडिका और पिरिपिरिया याने कोलियक पुट से बंधा हुआ वंश आदि की नलिका... यह इस चार सूत्रों का समुदित अर्थ है... सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में वाद्ययंत्रों से निकलने वाले मनोज्ञ एवं मधुर शब्दों को श्रवण करने का निषेध किया गया है। इसमें चार प्रकार के वाद्ययंत्रों का उल्लेख किया गया है-१. वितत, 2. तत, 3. घन और 4. सुषिर। मृदंग, नन्दी, झाल्लर आदि के शब्द 'वितत' कहलाते हैं, वीणा, विपंची आदि वाद्य यंत्रों के शब्दों को 'तत' संज्ञा दी गई है, हस्तताल, कंस ताल आदि शब्दों को 'घन' कहा जाता है और शंख, वेणु आदि के शब्द 'सुषिर' कहलाते हैं। इस प्रकार सभी तरह के वाद्ययंत्रों से प्रस्फुटित शब्दों को सुनने के लिए साधु प्रयत्न न करे। सूत्रकार ने यहां तक निषेध किया है कि साधु को इन शब्दों को सुनने के लिए मन में संकल्प भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि ये शब्द मोह एवं विकार भाव को जागृत करने वाले है। अतः साधु को इन से सदा बचकर रहना चाहिए। शब्द के विषय में कुछ और बातों का उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं। I सूत्र // 2 // // 503 // से भि० अहावेग तं० वप्पाणि वा फलिहाणि वा जाव सराणि वा सागराणि वा. सरसरपंतियाणि वा अण्ण तह० विरुव० सद्दाई कण्ण। से भि० अहावेग० तं० कच्छाणि वा वूमाणि वा गहणाणि वा वणाणि वा