________________ 84 2-1-1-5-6 (364) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा सः यत् पुन: जानीयात् श्रमणं वा ब्राह्मणं वा ग्रामपिण्डावलगकं वा अतिथिं वा पूर्वप्रविष्टं प्रेक्ष्य, न तान् उपातिक्रम्य प्रविशेत् वा अवभाषेत वा / सः तमादाय एकान्तमपक्रामेत्, अपक्रम्य अनापातमसंलोके तिष्ठेत्, अथ पुन: एवं जानीयात्प्रतिषिद्धे वा दत्ते वा, ततः तस्मिन् निवृत्ते संयत एव प्रविशेत् वा अवभाषेत वा, एवं एतत् सामग्यम् / / / 364 // III सूत्रार्थ : साधु और साध्वी ऐसा जाने कि- कोई अन्य श्रमण, ब्राह्मण, याचक या अतिथि पूर्व में गृहस्थ के घर में प्रवेशित है। तो उसके आगे होकर गृहस्थ के घर में जायें नहीं, और बोले भी नहीं। किंतु अपने पात्र को लेकर एकांत स्थान में जाकर दृष्टिपथ से दूर खड़ा रहे एवं जब ऐसा जाने कि- उसको मना कर दिया है या उसको भिक्षा दे दी गई है तब उसके (भिक्षुक-याचक-ब्राह्मण-अतिथि) जाने के बाद यतना सहित वह प्रवेश करे या बोले। साधु साध्वी के लिए यह वास्तविक क्रियाविधि है। ऐसा मैं कहता हूं। || 364 // IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आहारादि के लिये गांव आदि में प्रवेश करने पर ऐसा जाने कि- यहां गृहस्थ के घर में श्रमणादि प्रवेश किये हुए हैं... इस स्थिति में वह साधु पूर्वप्रविष्ट उन श्रमण आदि को ओलंगकर प्रवेश न करें और नही वहां खडे रहकर दाता से याचना करें किंतु इस स्थिति में वह साधु एकांत में जाकर खडा रहें अर्थात् तब तक कोई न देखे एवं कोई न आवे ऐसी जगह खडा रहे कि- जब तक वे उन श्रमणादि को, या तो निषेध करे या आहारादि दे... उसके बाद जब वे श्रमणादि उस घर में से निकले तब संयत ऐसा वह साधु उस घर में प्रवेश करे एवं याचना करे... इस प्रकार की आचरणा से ही उस साधु का संपूर्ण साधुभाव होता है... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि किसी गृहस्थ के द्वार पर पहले से शाक्यादि मत के भिक्षु खड़े हैं, तो मुनि उन्हें उल्लंघकर गृहस्थ के घर में प्रवेश न करे और न आहार आदि पदार्थो की याचना करे। उस समय वह एकान्त में ऐसे स्थान पर जाकर खड़ा हो जाए, जहां पर गृहस्थादि की दृष्टि न पड़े। और जब वे अन्य मत के भिक्षु भिक्षा लेकर वहां से हट जाएं या गृहस्थ उन्हें बिना भिक्षा दिए ही वहां से हटा दे, तब मुनि उस घर में भिक्षार्थ जा सकता है और निर्दोष एवं एषणीय आहार आदि पदार्थ ग्रहण कर सकता है।