________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-10-1 (390) 141 आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 1 उद्देशक - 10 म पिण्डैषणा // नववा उद्देशक कहा, अब दशवे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... यहां परस्पर यह संबंध है कि- नववे उद्देशक में पिंडग्रहणविधि कही, अब यहां दशवे उद्देशक में साधारणादि-पिंड की प्राप्ति होने पर वसति (उपाश्रय) में जाने के बाद साधु को क्या करना चाहिये, वह बात कहतें I सूत्र // 1 // // 390 // से एगइओ साहारणं वा पिंडवायं पडिगाहित्ता, ते साहम्मिए अणापुच्छित्ता जस्स जस्स इच्छड तस्स तस्स खद्धं खद्धं दलह, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिज्जा। से तमायाय तत्थ गच्छिज्जा, गच्छिऊण.एवं वइज्जा-आउसंतो समणा ! संति मम पुरेसंथुया वा पच्छा० तं जहा आयरिए वा उवज्झाए वा पवित्ती वा थेरे वा, गणी वा गणहरे वा गणावच्छेइए वा अवियाइं एतेसिं खलु खलु दाहामि, से सेवं वयंतं परो वइज्जा - कामं खलु आउसो ! अहापज्जत्तं निसिराहि, जावइयं परो वदइ, तावइयं निसिरिज्जा, सव्वमेव, परो वयह सव्वमेयं निसिरिज्जा || 390 // II संस्कृत-छाया : स: एकतरः साधारणं वा पिण्डपातं परिगृह्य तान् साधर्मिकान् अनापृच्छ्य यस्मै * यस्मै रोचते तस्मै तस्मै खलु खद्धं ददाति, मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात् / सः तत् आदाय तत्र गच्छेत्, गत्वा च एवं वदेत् - हे आयुष्मन् श्रमण ! सन्ति मम पुरःसंस्तुता: वा पश्चात् तद् यथा - आचार्य: वा, उपाध्यायः वा, प्रवर्तक वा स्थविरः वा, गणी वा गणधरः वा, गणावच्छेदक: वा, इति एवमादीन्, एतेभ्यः खलु खद्धं दास्यामि, 'स: एवं वदन्तं परः वदेत्-कामं खलु आयुष्मन् ! यथापर्याप्तं निसृज, - यावन्मानं परः वदति, तावन्मानं निसृज, सर्व एव परः वदति सर्वं एतत् निसृज || 390 / / III सूत्रार्थ : . कोई भिक्षु गृहस्थ के यहां से सम्मिलित आहार को लेकर अपने स्थान पर आता है और अपने साधर्मियों को पूछे बिना जिस जिस को जो रुचता है उस उस के लिए वह दे देता है तो ऐसा करने से वह मायास्थान का सेवन करता है। अतः साधु को ऐसा नहीं करना चाहिए