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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-28 (536) 509 और न उनका हनन करने वालों की अनुमोदना करुंगा। हे भगवन् ! मैं यावज्जीव अर्थात् जीवनपर्यन्त के लिए तीन करण और तीन योग से- मनसे वचन से और काया से इस पाप से प्रतिक्रमण करता हूं, पीछे हटता हूं, आत्म साक्षी से इस पाप की निन्दा करता हूं और गुरु साक्षी से गर्हणा करता हूं। तथा अपनी आत्मा को हिंसा के पाप से पृथक करता हूं। . प्रथम महाव्रत की 5 भावनाएं होती है उनमें से पहली भावना यह है—नियन्थ ईर्या समिति से युक्त होता है, न कि उससे रहित। भगवान कहते हैं कि ईर्या समिति का अभाव कर्म आने का द्वार है। क्योंकि इससे रहित निर्ग्रन्थ प्राणी, भूत, जीव और सत्व की हिंसा करता है उन्हें एक स्थान से स्थानान्तरित करता है, परिताप देता है, भूमि से संश्लिष्ट करता है और जीवन से रहित करता है। इसलिए निर्ग्रन्थ को ईर्या समिति युक्त होकर संयम का आराधन करना चाहिए, यह प्रथम भावना है। अब दूसरी भावना को कहते हैं- जो मन को पापों से हटाता है वह नियन्थ है। साधु ऐसे मन (विचारों) को धारण न करे कि- जो पापकारी, सावधकारी, क्रिया युक्त, आश्रव करने वाला, छेदन तथा भेदन करने वाला, कलहकारी, द्वेषकारी, परितापकारी, प्राणों का अतिपात करने वाला और जीवों का उपघातक है। जो अपने मनको पाप से हटाता है वह निय॑न्ध है, यह दूसरी भावना है। अब तीसरी भावना का स्वरुप कहते हैं- जो साधक सदोष वाणी-वचन का त्यागी है, वह निर्यन्थ है। जो वचन पापमय, सावद्य और सक्रिय यावत् भूतों-जीवों का उपघातक, विनाशक हो, साधु उस वचन का उच्चारण न करे। जो वाणी के दोषों को जानकर उन्हें छोड़ता है और पाप रहित निर्दोष वचन का उच्चारण करता है उसे निर्ग्रन्थ कहते हैं। यह तीसरी भावना है। अब चतुर्थ भावना को कहते हैं- जो आदान भाण्डमात्र निक्षेपणा समिति से युक्त होता है वह निम्रन्थ है। अतः साधु आदान भाण्डमात्र निक्षेपणा समिति से रहित न हो, क्योंकि केवली भगवान कहते हैं कि जो इससे रहित होता है, वह निर्ग्रन्थ प्राणी भूत, जीव, और सत्वों का हिंसक होता है यावत् उनको प्राणों से रहित करने वाला होता है। अतः जो साधु इस समिति से युक्त है वह नियन्थ है। यह चौथी भावना है। __अब पांचवी भावना को कहते हैं-जो साधु विवेक पूर्वक आलोकित आहार-पानी करता है वह निय॑न्थ है और जो साधु अनालोकित आहार पानी करता है, वह नियन्थ प्राणि आदि जीवों की हिंसा करता है, उन्हें प्राणों से पृथक् करता है। इसलिए देखे गये आहार पानी करने वाला ही नियन्थ होता है यह पांचवीं भावना है।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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