SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 282 2-1-3-2-5 (458) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन न हो, तो सभी असार वस्त्रादि का त्याग करें... और जब ऐसा जाने कि- मैं यह वस्त्रादि उपकरणों को उठाने में समर्थ हुं, तब वस्त्रादि उपकरणों के साथ हि नदी को पार करे और किनारे पे आकर पूर्व कही गइ विधि अनुसार इरियावही० का काउस्सग्ग करे... तथा प्रमार्जनादि की विधि पूर्व की तरह जानीयेगा... जब जल से बाहार किनारे पर पहुंचने के बाद विहार (गमन) करने की विधि कहतें हैं... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि विहार करते समय रास्ते में नदी आ जाए और उसमें जंघा प्रमाण पानी हो और उसके अतिरिक्त अन्य मार्ग न हो तो मुनि उसे पार करके जा सकता है। इसके लिए पहले वह सिर से पैर तक अपने शरीर का प्रमार्जन करे। इस प्रसंग में वृत्तिकार का कहना है कि नाभि से नीचे के भाग का रजोहरण से और उससे ऊपर के भाग का मुखवस्त्रिका से प्रमार्जन करे। मुखवस्त्रिका का प्रयोग भाषा की सावधता को रोकने एवं वायुकायिक जीवों की रक्षा की दृष्टि से किया जाता है और नाभि के उपर के भाग आदि पोंछने के लिए। तथा शरीर आदि का प्रमार्जन करने के लिए रजोहरण एवं भी प्रमाणनिका रखने का विधान है। अतः प्रमाणनिका शरीर के प्रमार्जन के लिए ही रखी गई है। ___इस तरह शरीर का प्रमार्जन करके विवेक पूर्वक नौका पर सवार होने के प्रकरण में बताई गई विधि के अनुसार साधु एक पैर जल में और दूसरा पैर स्थल (पानी के ऊपर के आकाश प्रदेश) पर रखकर गति करे। परन्तु, भैंसे की तरह पानी को रौंदता हुआ न चले और मन में यह भी कल्पना न करे कि मैं पानी में उतर तो गया हूँ अब कुछ गहराई में डुबकी लगाकर शरीर की दाह को शान्त कर लूं। उसे चाहिए कि वह अपने हाथ-पैरों को भी परस्पर स्पर्श न करता हुआ, अप्कायिक जीवों को विशेष पीड़ा न पहुंचाता हुआ नदी को पार करे। यदि नदी पार करते समय उसे अपने उपकरण बोझ रूप प्रतीत होते हों और उन्हें लेकर नदी से पार होना कठिन प्रतीत होता हो, तो वह उन्हें ववां छोड़ दे। यदि उपकरण लेकर पार होने में कठिनता का अनुभव न होता हो तो उन्हें लेकर पार हो जाए। परन्तु, नदी के किनारे पर पहुंचने के पश्चात् जब तक शरीर एवं वस्त्रों से पानी टपकता हो या वे गीले हों तब तक वह वहीं खड़ा रहे उस समय वह अपने हाथ से शरीर का स्पर्श न करे और न वस्त्रों को ही निचोड़े। उनके सूख जाने पर अपने शरीर का प्रतिलेखन करके विहार करे। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त जंघा का अर्थ पिंडी अर्थात् गोडे से नीचे के भाग तक पानी समझना चाहिए। क्योंकि, यदि जांघ-साथल या कमर तक पानी होगा तो ऐसी स्थिति में पैरों को उठाकर आकाश में रखना कठिन होगा। और कोष में भी जंघा का अर्थ गोडे से नीचे
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy