________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-2 (455) 273 और यदि नौका में से साधु को पकड कर जल में फेंके तब जो करना चाहिये वह अब कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि यदि नाविक साधु को छत्र, शस्त्र आदि धारण करने के लिए कहे या अपने बालक को दुध पिलाने के लिए कहे तो साधु उसकी बात को स्वीकार न करे, किन्तु मौन भाव से आत्म चिन्तन में संलग्न रहे। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि नाविक मुनि जीवन से सर्वथा अपरिचित होने के कारण उसे ऐसे आदेश देता है। यदि वह साधु के त्याग निष्ठ जीवन से परिचित हो तो वह साधु के साथ ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता। अतः उसके भाषण करने के ढंग से उसकी अनभिज्ञता प्रकट होती है और साधु के मौन रहकर उसके आदेश को अस्वीकार करने के पीछे एकमात्र प्राणी जगत की रक्षा एवं संयम साधना को विशुद्ध रखने का भाव स्पष्ट होता है। क्योंकि, यदि साधु छत्र, शस्त्र आदि धारण करेगा तथा नाविक के बच्चों को दुध पिलाएगा या उसके ऐसे ही अन्य कार्य करेगा तो उसमें असंयम होने से अनेक जीवों की हिंसा होगी और परिणाम स्वरूप उसकी संयम साधना भी टूट जाएगी। अतः साधु को नाविक के आदेशानुसार कार्य नहीं करना चाहिए, परन्तु मौन भाव से उसे अस्वीकार करके अपनी आध्यात्मिक साधना में व्यस्त रहना चाहिए। नाविक का कार्य न करने पर यदि कोई नाविक क्रुद्ध होकर साधु के साथ दुष्टता का व्यवहार करे, उसे उठाकर नदी की धारा में फैंक दे तो उस समय साधु को क्या करना चहिए ? इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 455 / / से णं परो नावागए नावागयं वएज्जा- आउसंतो ! एस णं समे नावाए भंडभारिए भवइ, से णं बाहाए गहाय नावाओ उदगंसि पक्खिविज्जा, एयप्पगारं निग्योसं सुच्चा निसम्म से य चीवरधारी सिया खिप्पामेव चीवराणि उव्वेढिज्जा वा निवेढिज्जा वा उप्फेसई वा करिज्जा अह० अभिकंत कूरकम्मा खलु बाहाहिं गहाय नावा० पक्खिविज्जा, से पुवामेव वइज्जा- आउसंतो ! गाहावइ ! मा मेत्तो बाहाए गहाय नावाओ उदगंसि पक्खिवह, सयं चेव णं अहं नावाओ उदगंसि ओगाहिस्सामि, से नेवं वयंत परो सहसा बलसा बाहाहिं ग० पक्खिविज्जा, तं नो सुमणे सिया नो दुम्मणे सिया नो उच्चावयं मणं नियंछिज्जा नो तेसिं बालाणं घायाए वहाए समुट्ठिज्जा, अप्पुस्सुए जाव समाहीए तओ, सं० उदगंसि पविज्जा // 455 / /