________________ 116 2-1-1-8-3 (379) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रतिज्ञया मूर्छित, गृद्धः, ग्रथित, अध्युपपन्नः अहो गन्धः अहो गन्धः न गन्धं आजिज्रेत् / / 378 // III सूत्रार्थ : धर्मशालाओं में, आरामशालाओं में, गृहस्थों के घरों में या परिव्राजकों के मठों में ठहरा हुआ साधु या साध्वी अन्न एवं पानी की तथा सुगन्धित पदार्थो कस्तूरी आदि की गन्ध को सुंघ कर उस गन्ध के आस्वादन की इच्छा से उसमें मूर्छित, गृद्धित, यथित और आसक्त होकर हि वाह ! क्या ही अच्छी सुगन्धि है, कहता हुआ उस गन्ध की सुवास न ले। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. आगंतार याने नगर के बाहार जहां मुसाफिर आकर ठहरतें हैं, तथा आरामगृह याने बगीचे-उद्यान में या गृहस्थों के घर में या भिक्षुकादि के मठों में इत्यादि स्थानो में आहार के गंध एवं जल-पान के गंध (सुगंध) को सुंघ-सुंघकर उनको खाने की पीने की इच्छा से मूर्छित हुओ, गृद्ध हुए, आदरवाले एवं उसी के विचारवाले होकर "अहो क्या सुगंध है," इत्यादि प्रकार से आदरवाले होकर गंध (सुगंध) को ग्रहण न करें.... अब और भी आहार के विषय में कहतें हैं... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- धर्मशाला में, बगीचे में, गृहस्थ के मकान में, परिव्राजक-संन्यासी के मठ में अथवा किसी भी निर्दोष एवं एषणीय स्थान में ठहरा हुआ साधु अनासक्त भाव से अपनी साधना में संलग्न रहे। यदि उक्त स्थानों के पास स्वादिष्ट अन्न एवं पानी या अन्य सुवासित पदार्थो की सुहावनी सुवास आती हो तो वहां स्थित साधु उसमें आसक्त होकर उस सुवास को ग्रहण न करे और न यह कहे कि क्या ही मधुर एवं सुहावनी सुवास आ रही है। परन्तु, वह अपने मन आदि योगों को उस ओर से हटाकर अपनी साधना मेंस्वाध्याय, ध्यान, चिन्तन-मनन आदि में लगा दे। ___ अब फिर से आहार ग्रहण करने के सम्बन्ध में सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र || 3 || || 379 // से भिक्खू वा से जं सालुयं वा विरालियं वा सासवनालियं वा अण्णयरं वा तहप्पगारं आमगं असत्थपरिणयं अफासु / से भिक्खू वार से जं पुण पिप्पलिं वा पिप्पलचुण्णं वा मिरियं वा मिरियचुण्णं वा सिंगबेरं वा सिंगबेरचुण्णं वा अण्णयरं वा