________________ 546 2-4-7 (547) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 7 // // 547 // सिएहिं भिक्खू असिए परिव्वए असज्जमित्थीसु चइज्ज पूयणं / अनिस्सिओ लोगमिणं तहा परं न मिज्जड कामगुणेहिं पंडिए // 547 / / II संस्कृत-छाया : सितैः भिक्षुः असितः परिव्रजेत् असज्जन् स्त्रीषु त्यजेत् पूजनम् / अनिश्रितः इहलोके तथा परे - न मीयेत् कामगुणैः पण्डितः // 547 // III सूत्रार्थ : साधु कर्मपाश में बन्धे हुए गृहस्थों या अन्य तीर्थियों के सम्पर्क से रहित होकर तथा स्त्रियों के संसर्ग का भी त्याग करके विचरे और वह, पूजा सत्कार आदि की अभिलाषा न करे, और इह लोक तथा परलोक के सुख की कामना भी न रखे। वह मनोज्ञ शब्दादि के विषय में भी प्रतिबद्ध न होवे। इस तरह उनके कटुविपाक को जानने के कारण वह मुनि, पंडित कहलाता है। IV टीका-अनुवाद : घर की मायाजाल से बद्ध या राग-द्वेषादि से बद्ध ऐसे गृहस्थ तथा अन्य मतवाले कुतीर्थिकों के साथ जो अबद्ध है ऐसा मुनि-साधु संयमाचरणशील होता है, तथा जो साधु स्त्रीजनों के साथ संग याने परिचय न रखे वह पूजा के पात्र होता है, तथा साधु सत्कार-सन्मान के अभिलाषी न हो... तथा इस जन्म में या परलोक (स्वर्गादि) में जो साधु संबद्ध याने अनुरागी नही है ऐसे विद्वान साधु-मुनिराज मनोज्ञ (अच्छे) कामगुण स्वरूप शब्दादि विषयों में लीन आसक्त नही होते हैं... किंतु उन शब्दादि विषयों के कटुक विपाक को देखनेवाले होतें हैं... सूत्रसार: प्रस्तुत गाथा में बताया गया है कि साधु को राग-द्वेष से युक्त एवं कर्म पाश में आबद्ध गृहस्थ एवं अन्य तीर्थयों का संसर्ग नहीं करना चाहिए और उसे स्त्रियों के संसर्ग का भी त्याग कर देना चाहिए। उसे पूजा-प्रतिष्ठा एवं ऐहिक या पारलौकिक सुखों की अभिलाषा भी नहीं रखनी चाहिए। परन्तु इन सब से मुक्त-उन्मुक्त होकर संयम साधना में संलग्न रहना चाहिए।