________________ 102 2-1-1-7-2 (372) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन पृथ्वीकाय पर स्थित आहार के विषय में उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 2 // // 372 // से भिक्खू वा से जं असणं वा, मट्टियाउलित्तं तहप्पगारं असणं वा लाभे स० केवलीo अस्संजए भि० मट्टिओलितं असणं वा उभिंदमाणं पुढविकायं समारंभिज्जा, तह तेउ-वाउ-वणस्सइ-तसकायं समारंभिज्जा, पुणरवि उल्लिंपमाणे पच्छाकम्मं करिजा, अह भिक्खूणं पुव्वो० जं तहप्पगारं मट्टिओलित्तं असणं वा, लाभे०। से भिक्खू० से जं असणं वा पुढविकायपइट्ठियं तहप्पगारं असणं वा अफासुयं से भिक्खू० ज० असणं वा आउकायपइट्ठियं चेव, एवं अगणिकायपइट्ठियं लाभे० केवलीo अस्संजo भि0 अगणिं उस्सक्किय निस्सक्किय ओहरिय आहट्ट दलइज्जा, अह भिक्खूणं० जाव नो पडि० // 372 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा स: यत्० अशनं वा मृत्तिकाअवलिप्तं तथाप्रकारं अशनं वा लाभे सति० केवली० असंयत: भिक्षु० मृत्तिकावलिप्तं अशनं वा उद्भिन्दन् पृथिवीकार्य समारभेत, तथा तेजोवायु वनस्पति प्रसकायं समारभेत, पुनरपि अवलिम्पन् पश्चात्कर्म कुर्यात्, अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टा० यत् तथाप्रकारं मृत्तिकावलिप्तं अशनं वा, लाभेल... स: भिक्षुः वा० स: यत्० अशनं वा पृथिवीकाय प्रतिष्ठितं तथाप्रकारं अथनं वा. अप्रासुकं सः भिक्षुः वा० यत्० अशनं वा अप्काय प्रतिष्ठितं चैव, एवं अग्निकाय प्रतिष्ठितं लाभे० केवलीo असंयत: भिक्षुः वा० अग्निं प्रज्वाल्य उत्सिञ्चय नि:सिथ्य अपवृत्त्य आहृत्य दद्यात्, अथ भिक्षुः यावत् न प्रति० // 372 / / III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी भिक्षा के निमित्त गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर यदि देखे कि अशनादि चतुर्विध आहार मिट्टी से लीपे हुए बर्तन में स्थित है, इस प्रकार के अशनादि चतुर्विध आहार को, मिलने पर भी साधु ग्रहण न करे। क्योंकि भगवान ने इसे कर्म आने का मार्ग कहा है। इसका कारण यह है कि गृहस्थ, भिक्षु के लिए मिट्टी से लिप्त अशनादि के भाजन का उद्भेदन करता हुआ पृथ्वीकाय का समारम्भ करता है, तथा अप्-पानी, तेज-अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस काय का समारम्भ करता है, फिर शेष द्रव्य की रक्षा के लिए उस बर्तन का पुनः लेपन करके पश्चात् कर्म करता है, इसलिए भिक्षओं को तीर्थकर आदि ने पहले ही