________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 167 आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 2 उद्देशक - 1 # शय्यैषणा // प्रथम अध्ययन कहा, अब दूसरे अध्ययन का प्रारंभ करतें हैं, और इन दोनों का इस प्रकार परस्पर संबंध है... यहां पहले अध्ययन में धर्म के आधार स्वरूप शरीर के पालन के लिये प्रारंभ में हि पिंड (आहारादि). ग्रहण करने की विधि कही... आहारादि प्राप्त होने पर साधु को जहां गृहस्थ न हो ऐसे उपाश्रय (वसति-मकान) में जाकर अवश्य ठहरना चाहिये... इस प्रकार से वसति-उपाश्रय के गुण एवं दोष कहने के लिये इस दुसरे अध्ययन का प्रारंभ करतें हैं... अतः इस प्रकार के परस्पर के संबंध से आये हुए इस दुसरे अध्ययन के चार अनुयोग द्वारा कहतें हैं... उनमें नामनिष्पन्न निक्षेप में "शय्यैषणा' ऐसा नाम है... अतः उसके निक्षेप करने के लिये कहतें हैं कि- जहां पिंडैषणा नियुक्ति है वहां उनके निक्षेप कीये गये हैं अतः वहां से जानीयेगा... ऐसा अतिदेश याने भलामण करके प्रथम गाथा से और अन्य नियुक्तिओं की यथायोग्य संभावना और निक्षेप दुसरी गाथा से कहकर अब तीसरी गाथा से "शय्या' पद के छह (6) निक्षेप कहतें हैं... उनमें से भी नाम एवं स्थापना सुगम होने के कारण से नियुक्तिकार अब शेष द्रव्य क्षेत्र आदि को कहतें हैं... द्रव्यशय्या, क्षेत्रशय्या कालशय्या एवं भावशय्या उनमें यहां द्रव्यशय्या याने वसति-उपाश्रय का अधिकार है और वह संयत ऐसे साधुओं के योग्य होनी चाहिये... अब द्रव्यशय्या का स्वरूप कहतें हैं... द्रव्यशय्या तीन प्रकार से होती है... 1. सचित्त, 2. अचित्त एवं 3. मिश्र... उनमें सचित्त पृथ्वीकाय आदि में रहना वह सचित्त द्रव्यशय्या है, और अचित्त पृथ्वीकाय आदि के उपर रहना वह अचित्त द्रव्यशय्या है, और अर्धपरिणत पृथ्वीकायादि में रहना वह मिश्रद्रव्यशय्या है... अथवा तो सचित्त द्रव्यशय्या का स्वरूप स्वयं नियुक्तिकार आगे की गाथा से कहेंगे... तथा क्षेत्रशय्या याने जहां गांव या नगर आदि क्षेत्र में निवास कीया जाय वह क्षेत्रशय्या है... तथा कालशय्या याने जहां ऋतुबद्ध काल आदि में रहा जाय वह कालशय्या... अब सचित्त द्रव्यशय्या का स्वरूप कथानक के द्वारा कहतें हैं... जैसे कि- कोइ एक अटवी में उत्कल और कलिंग नाम के दो भाइ जंगल के विषम स्थान में पल्लि (निवास योग्य छोटा सा गांव) बनाकर चोरी के द्वारा जीवन जीतें हैं... उनकी