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________________ 38 2-1-1-2-3 (346) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन नौकर-नौकरानी से पूछे कि- हे आयुष्मति ! भगिनि ! मुझे इन खाद्य पदार्थों में से अन्यतर भोजन दोगी ? इस प्रकार बोलते हुए साधु के प्रति यदि गृहस्थ चार प्रकार का आहार लाकर र की साधु स्वयमेव याचना करे या गृहस्थ स्वयं दे और वह आहार पानी प्रासुक और एषणीय हो तो साधु उसे व्यहण कर ले। IV टीका-अनुवाद : सः भिक्षुः = वह साधु आहारादि को ऐसा जाने कि- यह आहारादि अपुरुषांतरकृत आदि विशेषणवाला अप्रासुक एवं अनेषणीय है, तब उस आहारादि को ग्रहण न करे... जैसे कि- समवाय याने शंख छेद श्रेणी आदि का मेला... पिंडनिकर याने पितृपिंड... इंद्र-उत्सव... स्वामी कार्तिकेय की पूजा-महिमा... रूद्र (शंकर-महादेव) मुकुंद याने बलदेव... इत्यादि विभिन्न प्रकार के महोत्सवो में यदि जो कोई श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण, वनीपकादि आये हो तब उन्हें यह आहारादि दिया जाता है ऐसा जानने पर साधु उन आहारादि को ग्रहण न करें... यद्यपि सभी को न भी दें तो भी लोगों की भीडवाले उस महोत्सव में बनाये हुए आहारादि को "संखडी" दोष के कारण से ग्रहण न करें... किंतु जब ऐसा जाने कि- यह आहारादि उन श्रमण आदि को देने योग्य दे दीया है, और बाद में वे गृहस्थ स्वयं ही उस आहारादि का भोजन करतें हैं, ऐसा देखकर आहारादि के लिये साधु वहां जाय... और उन गृहस्थों को मान देकर कहे... जैसे कि- गृहस्थ की भार्यादि को भोजन करते हुए देखे और स्वामी को या स्वामी के आदेशकर को कहे कि- हे आयष्यमती! हे भगिनी (बहन ) आप मझे यह आहारादि दोगे क्या ? इस प्रकार बोलने वाले साधु को वह गृहस्थ आहारादि लाकर दे... वहां लोगों की भीड होने से या अन्य कोई कारण होने पर साधु स्वयं ही याचना करे अथवा बिना याचना किये ही गृहस्थ वह आहारादि साधु को दे, तब प्रासुक एवं एषणीय देखकर साधु उस आहारादि को ग्रहण करे.. अब दुसरे गांव विषयक बात सूत्रकार महर्षि. आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि गृह प्रवेश, नामकरण आदि उत्सव तथा मृतक कर्म या इन्द्र, स्कन्द एवं रुद्र आदि से सम्बन्धित उत्सवों के अवसर पर शाक्यादि भिक्षु, श्रमण-ब्राह्मण, गरीब-भिखारी आदि गृहस्थ के घर पर भोजन कर रहे हो और वह भोजन पुरुषान्तर कृत नहीं हुआ हो तो साधु उसे अनेषणीय समझकर ग्रहण न करे। यदि अन्य भिक्ष आदि भोजन करके चले गए हैं, अब केवल उसके परिवार के सदस्य, परिजन एवं दासदासी ही भोजन कर रहे हों, तो उस समय साधु प्रासुक एवं एषणीय आहार की याचना कर सकता है या उस घर का कोई सदस्य साधु को आहार ग्रहण करने के लिये प्रार्थना करे
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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