________________ 180 2-1-2-1-5 (402) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन में ठहरने पर यदि कभी वह बीमार हो गया तो वह अनुरागी गृहस्थ अनेक तरह की सावध एवं निरवद्य औषधियों से, तेल आदि के लेपन से या अग्नि जलाकर उसके शरीर को तपाकर उसे व्याधि से मुक्त करने का प्रयत्न करेगा तब साधु को निषेध करना होगा। यदि वह प्रतिकार नहीं करेगा तो उसके संयम का नाश होगा। इसलिए साधु को ऐसे स्थान में नहीं ठहरना चाहिए, जिससे उसके महाव्रतों में किसी तरह का दोष लगे। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘वसा' शब्द का अर्थ चर्बी नहीं, किन्तु स्निग्ध (चिकनाहट से युक्त) औषधि विशेष है। और ‘पसुभत्तपाणं' का अर्थ है- पशुओं के काम में आनेवाले खाद्य पदार्थ। 'सखुड्डं' (क्षुद्र) शब्द से कुत्ता, बिल्ली आदि पशुओं का एवं पशु शब्द से गाय भैंस आदि पशुओं का ग्रहण किया गया है। यह स्पष्ट है कि बीमार साधु को देखकर गृहस्थ के मन में दयाभाव विशेष रूप से जागृत होता है। इसलिए साधु को गृहस्थ के परिवार के साथ नहीं ठहरना चाहिए। इससे और भी अनेक दोष लगने की संभावना है। स्त्री आदि के साथ अधिक परिचय रहने से ब्रह्मचर्य में भी शिथिलता आ सकती है। यही कारण है कि आगम में साधु को स्त्री, पशु और नपुंसक युक्त मकान में और साध्वी को पुरुष, पशु और नपुंसक सहित मकान में रहने का निषेध किया गया है और इनसे रहित मकान में रहने वाले साधु को ही निर्ग्रन्थ कहा गया है। यह बात अलग है कि जिस मकान में केवल पुरुष ही रहते हो तो उस मकान में साधु और जिस मकान में केवल स्त्रियें निवसित हो तो उस मकान में साध्विये ठहर सकती हैं। इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... . I सूत्र // 5 // // 402 // आयाणमेयं भिक्खूस्स सागारिए उवस्सए संवसमाणस्स इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरी वा अण्णमण्णं अक्कोसंति वा पचंति वा रुंभंति वा उद्दविंति वा, अह भिक्खू णं उच्चावयं मणं नियंछिज्जा, एए खलु अण्णमण्णं अक्कोसंतु वा मा वा अक्कोसंतु जाव मा वा उद्दविंतु, अह भिक्खूणं पुटवल जं तहप्पगारे सा० नो ठाणं वा चेइज्जा || 402 // II संस्कृत-छाया : आदानमेतत्, भिक्षोः सागारिके उपाश्रये संवसतः इह खलु गृहपतिः वा यावत् कर्मकरी वा, अन्योऽन्यं आक्रोशन्ति वा पचन्ति वा रुन्धन्ति वा उपद्रवन्ति वा, अथ भिक्षु: उच्चावचं मनः कुर्यात्, एते खलु अन्योऽन्यं आक्रोशन्तु वा, मा वा आक्रोशन्तु, यावत्