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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-10-4 (393) 151 और वहां जाकर यंत्नपूर्वक खाए तथा पीए। यदि स्वयं खाने या पीने को असमर्थ हो तो जहां आस-पास में एक मांडले के सभागी, समनोज्ञ और निर्दोष साधु रहते हों वहां जावे और उनको दे दे। यदि साधर्मिक पास में न हो तो जो परठने को विधि बतलाई है उसी के अनुसार परठ दे। इस प्रकार मुनि का आचार धर्म बतलाया गया है। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. गृहस्थ के घर में प्रवेश करने पर जाने कि- वह गृहस्थ घर में जाकर काष्ठ के बरतन आदि में ग्लान आदि साधु के लिये सक्कर की याचना करने पर बिड नमक या सैंधव नमक, देने योग्य वस्तु में से अलग करके यदि साधु को दे, तब तथाप्रकार के गृहस्थ के हाथ आदि में रहे हुए उनका निषेध करे, कदाचित् जल्दी जल्दी में ले लिया हो, तब उस दाता को बहोत दूर नहि गया हुआ जानकर साधु वह लवण (नमक) आदि लेकर उसके पास जावे, और जाकर पहले हि उन्हे वह नमक आदि दिखावे, और कहे कि- हे भाइ ! हे बहन ! यह नमक आदि क्या आपने जानकर दिया है या अनजाने में ? ऐसा करने पर यदि वह कहे कि- मैंने यह नमक आदि आपको अनजानेमें दीये है, किंतु यदि आपको चाहिये तो ले जाइए... उसका उपयोग करो... इस प्रकार गृहस्थ से अनुमति मिलने पर साधु वापरे, यदि साधु स्वयं वापर नहि शकता तब साधर्मिक साधुओं को दे, यदि वे न हो तब पूर्व कही गइ विधि से त्याग करे... यह हि साधु का साघुपना है... V सूत्रसार: प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- यदि किसी गृहस्थ ने साधु को भूल से अचित्त नमक दे दिया है तो साधु उस गृहस्थ से पूछे कि यह नमक तुमने भूल से दिया है या जानकर ? वह कहे कि मैंने दिया तो भूल से है, फिर भी मैंने आपको दे दिया है अतः अब आप इसे खा सकते हैं या अपने अन्य साधुओं को भी दे सकते हैं। ऐसा कहने पर वह साधु उस अचित्त नमक को यदि स्वयं खा सकता है तो स्वयं खा ले, अन्यथा अपने सांभोगिक, मनोज्ञ एवं चारित्रनिष्ठ साधुओं को बांट दे। यदि स्वयं एवं अन्य साधु नहीं खा सकते हों तो उसे एकान्त एवं प्रासुक स्थान में जाकर परठ देवे। प्रस्तुत सूत्र में यह स्पष्ट होता है कि यदि कोई पदार्थ बिना इच्छा के भूल से आ गया है तो उसके लिए गृहस्थ के पूछकर उसकी आज्ञा मिलने पर उसे खा सकता है, अपने समान आचार-विचारनिष्ठ साधुओं को दे सकता है और उसे खाने में समर्थ न हो तो साधु मर्यादा के अनुसार परिष्ठापन-विसर्जन कर सकता है। 'त्तिबेमि' की व्याख्या पूर्ववत् समझें।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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