________________ 124 2-1-1-8-6 (382) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आदि से कुछ खाइ हुइ है... अतः इतने हि मात्र छिद्र आदि से वह शेलडी प्रासुक याने अचित्त नहि होती... तथा वेत्र का अय, तथा कंदली का मध्य, तथा अन्य भी कोई इसी प्रकार आम याने कच्चे हो, तथा शस्त्र से उपहत के अभाव में अचित्त न हुए हो तो ग्रहण न करें... इसी प्रकार लहसुन के विषय में भी स्वयं हि जानीयेगा... किंतु चोयगं याने कोशिकाकारवाली जो लहसुन की बाहार की छल्ली है, वह जब तक आर्द्र हो तब तक सचित्त है... तथा अच्छियं याने एक वृक्ष विशेष का फल, तथा तेंदयं याने टेंबरुय, वेलयं याने बिल्व, कासवनालियं याने श्रीपर्णी का फल यहां इन सभी के साथ कुंभीपक्व शब्द को जोडीयेगा... यहां सारांश यह है कि- जो अपरिपक्व (कच्चे) अच्छिक आदि फल गर्ता (खडे) आदि में रखकर बलात्कार के पकाये जातें हैं वे आम याने कच्चा, अर्थात् अपरिणत हो तब उनको साधु ग्रहण न करें... तथा कण याने शालि आदि कणिका, तथा कणिककुंड याने कणिका से मिश्रित बुक्कस, तथा कणपूपलिका याने कणिका से मिश्रित पूपलिका, यहां भी अपरिपक्वता के कारण से इन सभी पदार्थों को साधु ग्रहण न करें... यह हि साधु का सच्चा साधुपना है... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- अयबीज, मूलबीज, स्कन्धबीज, पर्वबीज, मूलजात, स्कन्धजात, पर्वजात तथा कन्द का, खजूर का एवं ताड़ का मध्य भाग तथा इक्षु या श्रृंगाल आदि से खाया हुआ फल, लहसुन का छिलका, पत्ता, त्वचा या बिल्व आदि के फल आदि सभी तरह की वनस्पति जो सचित्त है, अपक्व है, शस्त्रपरिणत नहीं हुई है; तो साधु को उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'अव्यबीज' एवं 'अग्रजात' में यह अन्तर है कि अव्यबीज को भूमि में बो देने पर उस वनस्पति के बढ़ने के बाद उसके अग्रभाग में बीज उत्पन्न होता है, जबकि अग्रजात अग्रभाग में ही उत्पन्न होता है, अन्यत्र नहीं। वृत्तिकार ने 'नन्नत्थ' शब्द के दो अर्थ किए हैं- एक तो अन्यत्र उत्पन्न नहीं होते हैं और दूसरा अर्थ यह किया है कि कदली (केला) आदि फलों का मध्य भाग छेदन होने से नष्ट हो जाता है। इस तरह वे फल अचित्त होने से व्याह्य हैं। परन्तु, इन अचित्त फलों को छोड़ कर, अन्य अपक्व एवं शस्त्र से परिणित नहीं हुए फलों को ग्रहण नहीं करना चाहिए। इसी तरह शृगाल आदि पशु या पक्षियों के द्वारा थोड़ा सा खाया हुआ तथा अग्नि के धुंएं से पकाया हुआ फल भी अव्याह्य है। प्रस्तुत सूत्र का अनुशीलन-परिशीलन करने से स्पष्ट हो जाता है कि उस युग में साधु प्रायः बगीचों में ठहरते थे। शृगाल आदि द्वारा भक्षित फल बगीचों में ही उपलब्ध हो सकते हैं। क्योंकि शृगाल आदि जङ्गलों में ही रहते एवं घूमते हैं, वे घरों में आकर फलों को नहीं खाते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि उस युग में साधु अधिकतर बगीचों में ही ठहरते थे।