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________________ 56 2-1-1-3-7 (354) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन साथ रहते ही हैं। परन्तु, इसके अतिरिक्त कुछ जिनकल्पी मुनि शीत सहन करने में असमर्थ हों तो वे एक ऊन का और अधिक आवश्यकता पड़ने पर एक सूत का वस्त्र भी रख सकते हैं। इस तरह 5 उपकरण हो गए और यदि किसी जिनकल्पी मुनि के हाथों की अंजली (जिन कल्पी मुनि हाथ की अंजली बनाकर उसी में आहार करते हैं) में छिद्र पड़ते हों तो वे छिद्रपाणी, जिन कल्पिक साधु पात्र के सात उपकरण भी रखतें हैं... ___यहां यह प्रश्न हो सकता है कि- जिनकल्पी मुनि होते हैं, पर उन में साध्वी नहीं होती और प्रस्तुत सूत्र में साधु-साध्वी दोनों शब्दों का उल्लेख है। इसका समाधान यह है कि- यह उल्लेख समुच्चय रूप से हुआ है। पिछले सूत्रों में साधु-साध्वी का उल्लेख होने के कारण इस सूत्र में भी उसे दोहरा दिया गया है। परन्तु, यहां प्रसंगानुसार साधु का ही ग्रहण करना चाहिए। वृत्तिकार ने भी इस पाठ को जिनकल्पी मुनि से संबन्धित बताया है। इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि- प्रस्तुत सूत्र में जिनकल्पी साधु का प्रसंग ही युक्ति संगत प्रतीत होता है। कुछ कारणों से साधु को अपने भंडोपकरण लेकर आहार आदि को नहीं जाना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैंI सूत्र // 7 // // 354 / / से भिक्खू वा अह पुण एवं जाणिज्जा तिव्वदेसियं वासं वासेमाणं पेहाए तिव्वदेसियं महियं संनिचयमाणं पेहाए, महावाएण वा रयं समुद्धयं पेहाए तिरिच्छसंपाइमा वा तसा पाणा संथडा संनिचयमाणा पेहाए से एवं नच्चा नो सव्वं भंऽगमायाए गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज वा निक्खमिज्जा वा बहिया विहारभूमिं वा बिचारभूमिं वा निक्खमिज वा पविसिज्ज वा गामाणुगामं दुइजिज्जा || 354 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा अथ पुनः एवं जानीयात्-तीव्रदेशिकं क्षेत्रं वर्षन्तं प्रेक्ष्य, तीव्रदेशिका महिकां संनिचयमानां प्रेक्ष्य महावातेन वा रजः समुद्धृतं प्रेक्ष्य तिर्यक्सम्पातिनो वा असा: प्राणिनः संस्तृतान् संनिचयमानान् प्रेक्ष्य, स: एवं ज्ञात्वा न सर्वं भाण्डं (भण्डक) आदाय गृहपतिकृलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविशेत् वा निष्क्रामेत् वा बहिः विहारभूमिं वा विचारभूमि वा निष्क्रामेत् वा प्रविशेत् वा यामानुग्रामं गच्छेत् // 354 // III सूत्रार्थ : साधु और साध्वी को ऐसा जानने में आवे कि- बहुत भारी और बहुत दूर तक बारिश हो रही है। बहुत दूर तक घिर रहा है। अथवा बड़े तुफान से रज-धूली चारों ओर छा रही
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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