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________________ 352 2-1-5-1-7 (481) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इस विषय पर और अधिक विस्तार से विचार करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 7 // // 481 / / से भि० से जं असंड० ससंताणगं तहप्प० वत्थं अफा० नो पडि० / से भि० से जं अप्पंडं जाव असंताणगं अनलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं रोइज्जंतं न रुच्चड़, तह० अफा० नो पडि० / से भि० से जं0 अप्पंडं जाव असंताणगं अलं थिरं धुवं धारणिज्जं रोइज्जंतं रुच्चड़, तह० वत्थं फासु० पडि० / से भि० नो नवए मे वत्थेत्ति कट्ट नो बहुदेसिएण सिणाणेण वा जाव पघंसिज्जा। से भि० नो नवए मे वत्थेत्ति कट्ट नो बहुदे० सीओदगवियडेण वा जाव पहोइज्जा / से भिक्खू वा दुब्भिगंधे मे वत्थित्ति कट्ट नो बहु० सिणाणेण तहेव बहुसीओ० उस्सिं०' आलावओ || 481 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा सः यत् स-अण्डं० यावत् ससन्तानकं तथाप्रकारं० वस्त्रं अप्रासुकं० न प्रतिगृह्णीयात्। सः भिक्षुः वा सः यत् अल्पाण्डं यावत् असन्तानकं अनलं अस्थिरं अस्थिरं अध्रुवं अधारणीयं रोच्यमानं न रोचते, तथा० अप्रासुकं० न प्रति०। सः भिक्षुः वा सः यत् अल्पाण्डं यावत् असन्तानकं अलं स्थिरं ध्रुवं धारणीयं रोच्यमानं रोचते, तथा० वखं प्रासुकं प्रति०। स: भिक्षुः वा न नवं मम वखं इति कृत्वा न बहुदेश्येन स्नानेन वा यावत् प्रघर्षयेत् / सः भिक्षुः वा न नवं मम वसं इति कृत्वा न बहुदेश्येन शीतोदकविकटेन वा यावत् प्रक्षाल्येत। सः भिक्षुः वा दुरभिगन्धं मम वसं इति कृत्वा न बहुदेश्येन० स्वानेन तथैव बहुशीतोदकविकटेन वा उत्सिच्य० आलापकः // 481 / / III सूत्रार्थ : यदि कोई वस्त्र अण्डों एवं मकड़ी के जालों आदि से युक्त हो तो संयमनिष्ठ साधु-साध्वी को ऐसा अप्रासुक वस्त्र मिलने पर भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि कोई वस्त्र अण्डों और मकड़ी से रहित है, परन्तु, जीर्ण-शीर्ण होने के कारण अभीष्ट कार्य की सिद्धि में असमर्थ है, या गृहस्थ ने उस वस्त्र को थोड़े काल के लिए देना स्वीकार किया है, अतः ऐसा वस्त्र जो पहनने के अयोग्य है और दाता उसे देने की पूरी अभिलाषा भी नहीं रखता और साधु को भी उपयुक्त प्रतीत नहीं होता हो तो साधु को ऐसे वस्त्र को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर छोड़ देना .
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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