________________ श्री सजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका 2-3-29 (537) 517 V सूत्रसार : ___ प्रस्तुत सूत्र में दूसरे महाव्रत का वर्णन किया गया है। असत्य आत्मा के लिए पतन का कारण है। उससे आत्मा में अनेक दोष आते हैं और पाप कर्म का बन्ध होता है। इसलिए साधक असत्य वचन का सर्वथा त्याग करता है और उसके साथ उसके कारणों का भी त्याग करता है। इसमें बताया गया है कि व्यक्ति क्रोध, मान, माया और लोभ के वश होकर झूठ बोलता है। अतः साधक को इन काषायों का त्याग कर देना चाहिए। और यदि कर्मोदय से कभी कषाय का उदय हो रहा हो तो मौन ग्रहण करके पहले कषाय को उपशान्त करना चाहिए, उसके बाद भाषा का प्रयोग करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि जो साधक असत्य भाषा का सर्वथा त्याग नहीं करता, वह निर्ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः असत्य से पूर्णतः निवृत्त साधक ही निर्ग्रन्थ कहा जा सकता है। उक्त, महाव्रत की भावनाओंका उल्लेख सूत्रकार आगे करते हैं। प्रथम महाव्रत की तरह द्वितीय महाव्रत की भी 5 भावनाएं हैं- 1. विवेक विचार से बोलना, 2. क्रोध के वश, 3. लोभ के वश, 4. भय के वश और 5. हास्य के वश असत्य नहीं बोलना चाहिए। भाषा बोलने के पूर्व विवेक रखना प्रत्येक व्यक्ति के लिए हितकर है। परन्तु असत्य का सर्वथा त्याग करने वाले साधक के लिए यह अनिवार्य है कि वह विवेक पूर्वक एवं भाषा की सदोषता तथा निर्दोषता का विचार करके बोले। वह सदा इस बात का ख्याल रखे कि किसी भी तरह असत्य एवं सदोष भाषा का प्रयोग न होने पाए। यह भी स्पष्ट है कि क्रोध और लोभ के वश भी व्यक्ति झूठ बोल सकता है। उस समय उसे बोलने का विवेक नहीं रहता है। इसी तरह भय भी मनुष्य के विवेक को विलुप्त कर देता है। भय से छुटकारा पाने के लिए भी असत्य का सहारा ले लेता है। अतः साधु को इन सब दोषों से मुक्त रहना चाहिए। उसे क्रोध, लोभ एवं भय आदि विकारों से उन्मुक्त होकर विचरना चाहिए। हम देखते हैं कि हंसी-मजाक के वश भी लोग झूठ बोलते हैं। अतः साधक को हास्य से भी दूर रहना चाहिए। हंसी-मजाक से एक तो जीवन की गम्भीरता नष्ट होती है। दूसरे में वह लोगों की दृष्टि में छिछला सा व्यक्ति प्रतीत होता है। स्वाध्याय एवं ध्यान का समय भी व्यर्थ ही नष्ट होता है और साथ में असत्य का भी प्रयोग हो जाता है। इसलिए साधक को हंसी मजाक का परित्याग करके सदा आत्म साधना में संलग्न रहना चाहिए। अब द्वितीय महाव्रत का उपसंहार सूत्रकार आगे कहते हैं।