________________ 516 2-3-29 (537) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन विचारे बोलने वाले निर्ग्रन्थ को मृषा भाषण की संप्राप्ति होती है अर्थात् मिथ्या भाषण का दोष . लगता है अतः विचार पूर्वक बोलने वाला साधक ही निर्ग्रन्थ कहा जा सकता है। द्वितीय महावत की दूसरी भावना यह है कि जो साधक क्रोध के कटु फल को जानकर उसका परित्याग करता है, वह निन्थ है। केवली भगवान का कहना है कि क्रोध एवं आवेश के वश व्यक्ति असत्य वचन का प्रयोग कर देता है। अतः क्रोध से निवृत्त साधक ही निर्यन्थ होता है। तीसरी भावना यह है कि लोभ का परित्याग करने वाला साधक निर्ग्रन्थ होता है। लोभ के वश होकर भी व्यक्ति झूठ बोल देता है, अतः साधक को लोभ नहीं करना चाहिए। चौथी भावना यह है कि भय का सर्वथा परित्याग करने वाला व्यक्ति निर्ग्रन्थ कहलाता है। भय से युक्त व्यक्ति अपने बचाव के लिए झूठ बोल देता है। अतः मुनि को सदा पूर्णतः / भय से रहित रहना चाहिए। इस प्रकार दूसरे महाव्रत को सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्शितकर यावत् आज्ञा पूर्वक आराधित करने से हे भदन्त ! यह दूसरा महाव्रत होता है। अर्थात् उक्त महाव्रत की सम्यक्तया अराधना होती है। IV टीका-अनुवाद : अब दूसरे महाव्रत की पांच भावना कहतें हैं... साधु सोच-विचारकर ही बोले, बिना सोचे विचारे बोलने से अनेक दोष लगते हैं... प्रथम भावना... 2. दूसरी भावना- साधु क्रोध का हमेशा त्याग करे, क्योंकि- क्रोधी मनुष्य झूठ भी बोले... ___ तीसरी भावना - साधु लोभ न करे, क्योंकि- लोभ भी मृषावाद का कारण होता है... चौथी भावना- साधु भय का भी त्याग करे... क्योंकि- भय से भी झूठ बोला जाता 5. पांचवी भावना- साधु हास्य का भी त्याग करे.. इस प्रकार पांच भावनाओं से ही दुसरे महाव्रत की अच्छी तरह से आज्ञानुसार आराधना हो सकती है...