________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका अब यहां जो कथनीय है वह उपकाराय स्वरूप अग्र नाम के द्वितीय श्रुतस्कंध के रचनाकार कौन है ? रचना क्यों की ? और इस रचना का मूल-आधार क्या है ? नि. 290 स्थविर याने श्रुतवृद्ध चौदह पूर्वधरों ने रचना की है, तथा शिष्य के हित के लिये उपकार दृष्टि से रचना की गई है, और अस्पष्ट (अप्रगट) अर्थ को स्पष्ट करने के लिये इस अय नामक श्रुतस्कंध की रचना की गई है, और आचारांग सूत्र से ही समस्त अर्थ लेकर आचारांग के अय-श्रुतस्कंध में विस्तार से कहा है... अब जो अर्थ जिससे कहा है वह बात विस्तार से नियुक्ति की गाथाओं से ही नियुक्तिकार स्वयं कहतें हैं। नि.२९१, 292, 293, 294 प्रथम ब्रह्मचर्य श्रुतस्कंध के लोकविजय नामके दुसरे अध्ययन के पांचवे उद्देशक से एवं आठवे विमोक्षाध्ययन के दुसरे उद्देशक से ग्यारह (11) पिडैषणा) कही है, तथा इसी दुसरे अध्ययन के पांचवे उद्देशक से वस्त्रैषणा(२), पात्रेषणा(3), अवग्रहप्रतिमा 4) शय्या(५) तथा पांचवे अध्ययन के चौथे उद्देशकसे ईयEि), तथा छटे अध्ययन के पांचवे उद्देशक से भाषा७), तथा महापरिज्ञा नाम के नवें अध्ययन के सात उद्देशको में से एक एक ऐसी सात सप्तैकक की रचना की गई है, तथा शस्त्रपरिज्ञा नाम के पहले अध्ययन से भावना नाम की चूलिका और धूत नाम के छठे अध्ययन के दुसरे एवं चौथे उद्देशक में से विमुक्ति नाम के अध्ययन की रचना की गइ है, तथा आचार-प्रकल्प स्वरूप “निशीथ" अध्ययन की रचना प्रत्याख्यान पूर्व की तीसरी वस्तु के “आचार'' नाम के बींसवे प्राभृत से की गई है... इस प्रकार ब्रह्मचर्य नाम के प्रथम श्रुतस्कंध में से ही अन्य नाम के द्वितीय श्रुतस्कंध की रचना हुई है, और नियूहन अधिकार से ही उन अध्ययनों का भी शस्त्रपरिज्ञा नाम के प्रथम अध्ययन से ही नियूँढ हुआ है, यह बात 'अब कहतें हैं... नि. 295 शस्त्र-परिज्ञा अध्ययन में “प्राणियों को पीडा देना" स्वरूप दंड का निक्षेप याने त्याग अर्थात् संयम की बात अस्पष्ट ही कही थी, अतः उस संयम की बात विभाग करके शेष आठ अध्ययन में कही है, अर्थात् संक्षेप से कही गई संयम की बात अब विस्तार से कहतें हैं। नि.२९६, 297 अविरति से विरमण स्वरूप संयम एक प्रकार से ही है, और वह संयम आध्यात्मिक