________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-2-3-3-2 (500) 423 यदि वह स्थान केवल अन्य मत के श्रमण-ब्राह्मणों के लिए बनाया गया है तो पुरुषान्तरकृत होने पर साधु उस स्थान में मल-मूत्र का त्याग कर सकता है। ___ जो स्थान अन्तरिक्ष में हो अर्थात् मंच, स्तंभ आदि पर हो तो ऐसे स्थानों पर भी मलमूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए। मार्ग की विषमता के कारण ही ऐसे स्थानों पर परठने का निषेध किया गया है, जैसे कि पूर्व अध्ययनों में ऐसे स्थानों पर हाथ-पैर आदि धोने एवं वस्त्र आदि सुखाने का निषेध किया गया है। किंतु यदि ऊपर के स्थानों पर जाने का मार्ग प्रशस्त हो, जीवों की विराधना न होती हो तो साधु उन स्थानों का उपभोग भी कर सकता जिस स्थान से कन्द-मूल आदि भीतर से बाहर एवं बाहर से भीतर लाए जा रहे हों तो ऐसे स्थान पर भी साधु को मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए। इसका कारण यह है कि संभवतः यह क्रिया भूमि को परठने योग्य बनाने के लिए की जा रही हो, अतः साधु ' को ऐसे स्थान का भी परठने के लिए उपयोग नहीं करना चाहिए। जिस स्थान पर साधु के उद्देश्य से कोई विशेष क्रियाएं की गई हों, जैसे- स्थान को सम बनाया गया हों, छायादार बनाया गया हो, सुवासित बनाया गया हो, तो जब तक यह भूमि पुरुषान्तर न हो जाएं तब तक साधु को उनका उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे यह स्पष्ट होता है कि साधु को सचित्त, जीव जन्तु एवं हरियाली युक्त तथा सदोष भूमि पर मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए। उसे सदा अचित्त जीव जन्तु आदि से रहित, निर्दोष एवं प्रासुक भूमि पर ही मल-मूत्र का त्याग करना चाहिए। - इस विषय को और स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें हैं... I सूत्र // 2 // // 500 // से भिक्खू० से जं० जाणेज्जा- इह खलु गाहावई वा गाहावइपुत्ता वा कंदाणि वा जाव बीयाणि वा परिसाडिंसु वा परिसाडिंति वा परिसाडिस्संति वा अण्ण तह० नो उच्चार। से भि0 से जं० इह खलु गाहावई वा गा० पुत्ता वा सालीणि वा वीहीणि वा मुग्गाणि वा मासाणि वा कुलत्थाणि वा जवाणि वा जवजवाणि वा पडरिंसु वा पड़रिंति वा परिस्संति वा अण्णयरंसि वा तह० थंडिल नो उच्चार० / से भि०, जं० आमोयाणि वा घासाणि वा भिलुयाणि वा विज्जलयाणि वा