________________ 144 2-1-1-10-2 (391) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन सुधर्म स्वामी आगे का सत्र कहतें हैं... . I सूत्र // 2 // // 391 // से एगइओ मणुण्णं भोयणजायं पडिगाहित्ता पंतेण भोयणेण पलिच्छाएइ, मा मेयं * दाइयं संतं दवणं समयाइए आयरिए वा जाव गणावच्छेए वा, नो खलु मे कस्सइ किंचि दायव्वं सिया, माइट्ठणं संफासे, नो एवं करिज्जा। से तमायाय तत्थ गच्छिज्जा, गच्छिऊण पुव्वामेव उत्ताणए हत्थे पडिग्गहं कट्ट इमं खलु इमं खलुत्ति आलोइज्जा, नो किंचिवि निगहिज्जा / से एगइओ अण्णयरं भोयणजायं पडिगाहित्ता भद्दयं भुच्चा, विवण्णं विरसमाहरइ, माइ० नो एवं० // 391 / / II संस्कृत-छाया : स: एकतरः मनोज्ञं भोजनजातं परिगृह्य, प्रान्तेन भोजनेन पर्याच्छादयति (अवगूहयेत्) मा मा एतत् दर्शितं सत्, दृष्ट्वा समाददाति आचार्यः वा यावत् गणाऽवच्छेदको वा, न खलु मया कस्मैचित् किधिदपि दातव्यं स्यात्, मातृस्थानं संस्पृशेत्, न एवं कुर्यात् ! सः तद् आदाय तत्र गच्छेत्, गत्वा च पूर्वमेव उत्तानके हस्ते प्रतिग्रहं कृत्वा, "इदं खलु इदं खलु" इति आलोकयेत्, न किचिदपि निगूहयेत्। सः एकतरः अन्यतरं भोजनजातं परिगृह्य भद्रकं, भुक्तवा विवर्णं विरसं समाहरति, मातृ० नो एवं० // 391 // III सूत्रार्थ : . यदि कोई मुनि भिक्षा में प्राप्त सरस, स्वादिष्ट आहार को आचार्य आदि न ले लेवे इस दृष्टि से उसे रूखे-सूखे आहार से छिपा कर रखता है, तो वह माया का सेवन करता है। अतः साधु को सरस एवं स्वादिष्ट आहार के लोभ में आकर ऐसा छल-कपट नहीं करना चाहिए। जैसा भी आहार प्राप्त हुआ हो उसे ज्यों का गों लाकर आचार्य आदि के सामने रख दे और झोली एवं पात्र को हाथ में ऊपर उठाकर एक-एक पदार्थ को बता दे कि मुझे अमुक-अमुक पदार्थ प्राप्त हुए हैं। इस तरह साधु को थोड़ा भी आहार छिपाकर नहीं रखना चाहिए। यदि कोई साधु गृहस्थ के घर पर ही प्राप्त पदार्थों में से अच्छे-अच्छे पदार्थों को उदरस्थ करके बचे-खुचे पदार्थ आचार्य आदि के पास लेकर आता है, तो वह भी माया का सेवन करता है। अतः साधु को ऐसा कार्य नही करना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : . ऐसा न करें यहां तक यह सूत्र सुगम हि है, अब जो करना चाहिये वह कहते हैं