________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-10-1 (390) 143 ल ॐ आदि जो आज्ञा प्रदान करें उसके अनुसार कार्य करना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि साधु को संघ की व्यवस्था करने वाले आचार्य आदि प्रमुख मुनियों की आज्ञा लेकर ही साधु जीवन की प्रत्येक क्रिया में प्रवृत्त होना चाहिए। आचार्य अभयदेव सूरि ने सात पदवियों का निम्न अर्थ किया है१. . आचार्य :- प्रतिबोधक प्रव्राजकादि; अनुयोगाचार्यो वा। उपाध्याय :- सूत्रदाता। प्रवर्तक :- प्रवर्तयति साधूनाचायोपादिष्टेषु वैयावृत्यादिष्विति प्रवर्ती। स्थविर :- प्रवर्तिव्यापारितान् साधून संयमयोगेषु सीदतः स्थिरीकरोतीति स्थविरः। . गणी :-गणोऽस्यातीति गणी-गणाचार्यः / गणधर :- गणधरो-जिनशिष्यविशेषः / गणावच्छेदक :- गणस्यावच्छेदो- विभागोंऽशोऽस्यास्तीति यो हि गणांशं गृहीत्वा गच्छोपष्टम्भायैवोपधिमार्गणादि निमित्तं विहरति स गणावच्छेदकः। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उक्त सातों उपाधियां गण की, संघ की सुरक्षा एवं सुव्यवस्था बनाए रखने के लिए रखी गई हैं। इनमें गणावच्छेदक का कार्य साधुओं की उपधि आदि की आवशक्यकता को पूरा करना है। जबकि आचाराङ्ग सूत्र के वृत्तिकार आचार्य शीलांक ने गणावच्छेदक को गण, गच्छ या संघ का चिन्तक बताया है। परन्तु, आचार्य अभयदेव सूरि ने जो अर्थ किया है, वह दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में वर्णित आठ गणि संपदाओं से संबन्ध रखता ॐ है। ___प्रस्तुत सूत्र में 'पूरे संथुवा' और 'पच्छा संथुवा' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका तात्पर्य दीक्षाचार्य एवं वाचनाचार्य से है। उक्त सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि दीक्षाचार्य एवं वाचनाचार्य (आगम का ज्ञान कराने वाले) अलग-अलग होते थे। प्रस्तुत सूत्र में साधु के वात्सल्य भाव का वर्णन किया गया है और साथ में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि उसे प्रत्येक कार्य आचार्य आदि की आज्ञा से करना चाहिए। उन्हें बिना बताए या उन्हें बिना पूछे न स्वयं आहार करना चाहिए एवं न अन्य साधुओं को देना चाहिए। परंतु आहार आदि कार्यों में माया, छल, कपट आदि का परित्याग करके सरल भाव से साधना में संलग्न रहना चाहिए। साधु को माया-कपट से सदा दूर रहना चाहिए इसे स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि