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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-4 (338) 17 3 से पकाया हो, दुष्पक्वादि दोष से रहित हो ऐसे प्रासुक एवं एषणीय आहारादि की प्राप्ति होने पर साधु उन आहारादि को ग्रहण करें... अब गृहस्थों के घर में प्रवेश की विधि सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में भी यह बताया गया है कि- साधु-साध्वी चावल (शाली-धान) आदि अनाज एवं उनका चूर्ण जो अपक्व या अर्धपक्व हो, नहीं लेना चाहिए। क्योंकि- शाली-धान (चावल), गेहूं, बाजरा आदि सजीव होते हैं, अतः उन्हें अपक्व एवं अर्धपक्व अवस्था में साधु को नहीं लेना चाहिए। जैसे कि-लोग मकई के भुटे एवं चने के होले आग में भूनकर खाते हैं, उनमें कुछ पक जाता है और कुछ भाग नहीं पकता। इस तरह जो दाने अच्छी तरह से पके हुए नहीं हो वे पूर्णतया अचित्त नहीं हो पाते। उनमें सचित्तता की संभावना रहती है, इसलिए साधु को ऐसी अपक्व एवं अर्धपक्व वस्तुए नहीं लेनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि- साधु को सचित्त एवं अनेषणीय पदार्थ ग्रहण नहीं करना चाहिए, और जो पदार्थ अच्छी तरह पक गए हैं, अचित्त हो गए हैं, उन्हें साधु ग्रहण कर सकता है। शाली-चावल की तरह अन्य सभी तरह के अन्न एवं अन्य फलों के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए कि- साध उन सब वस्तओं क ग्रहण नही कर सकता है कि- जो सचित्त एवं अनेषणीय हैं किंतु अचित्त एवं एषणीय पदार्थ को यथावश्यक ग्रहण कर सकता है। यह तो स्पष्ट है कि- साधु को आहार आदि ग्रहण करने के लिए गृहस्थ के घर में जाना पड़ता है। क्योंकि- जिस स्थान पर साधु ठहरा हुआ है, उस स्थान पर यदि कोई व्यक्ति आहार आदि लाकर दे तो साधु उसे ग्रहण नहीं करता। क्योंकि- वहां पर वह पदार्थ के निर्दोषता की जांच नहीं कर सकता। इस लिए साधु स्वयं गृहस्थ के घर जाकर एषणीय एवं प्रासुक आहार आदि पदार्थ ग्रहण करता है। अतः यह प्रश्न होना जरूरी है कि- साधु को गृहस्थ के घर में किस तरह प्रवेश करना चाहिए। इसका समाधान सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से करते हैI सूत्र // 4 // // 338 // से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावडकुलं जाव पविसिउकामे नो अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा परिहारिओ वा अप्परिहरिएण सद्धिं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज वा निक्खमिज्ज वा। से भिक्खू वा, बहिया वियारभूमि वा विहारभूमिं वा निक्खम्ममाणे वा पविसमाणे वा नो अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वा परिहारिओ वा, अपरिहारिएण सद्धिं बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खमिज्ज वा पविसिज्ज वा।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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