SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 521
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 482 2-3-6 (514) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अपने सम्बन्धियों में यथायोग्य विभाग करके एक वर्ष पर्यन्त दान देकर हेमन्त ऋतु के प्रथम . मास, प्रथम पक्ष अर्थात् मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर भगवान ने दीक्षा ग्रहण करने का अभिप्राय प्रकट किया। IV टीका-अनुवाद : सूत्रार्थ पाठसिद्ध होने से टीका नहि है...... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में भगवान के दीक्षा संबंधी संकल्प का वर्णन किया गया है। इसमें बताया गया है कि भगवान के माता पिता का स्वर्गवास हो जाने पर भगवान ने सम्पूर्ण वैभव का त्याग करके दीक्षित होने का विचार प्रकट किया। जिस समय भगवान गर्भ में आए थे, उस . . समय उन्होंने यह सोचकर अपने शरीर को स्थिर कर लिया कि मेरे हलन-चलन करने से माता को कष्ट न हो। परन्तु इस क्रिया का माता के मन पर विपरीत प्रभाव पड़ा। गर्भ का हलन-चलन बन्द हो जाने से उसे यह सन्देह होने लगा कि कहीं मेरा गर्भ नष्ट तो नहीं हो गया है। और परिणाम स्वरुप माता का दःख और बढ़ गया और उसे दुःखित देखकर सारा परिवार शोक में डूब गया। अपने अवधि ज्ञान से माता की इस दुखित अवस्था को देखकर भगवान ने हलन चलन शुरु कर दी और साथ में यह प्रतिज्ञा भी ले ली कि जब तक मातापिता जीवित रहेंगे, तब तक मैं दीक्षा नहीं लूंगा। वे अपने लिए अपनी माता को जरा भी कष्ट देना नहीं चाहते थे। अब माता-पिता के स्वर्गवास होने पर उनकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई, अतः वे अपने साधना पथ पर गतिशील होने के लिए तैयार हो गए। कुछ प्रतियों में 'नाय कुल निव्वते' के स्थान पर 'नायकुलचन्दे' पाठ भी उपलब्ध होता है। और प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'विदेहदिन्ने' आदि पदों का वृत्तिकार ने यह अर्थ किया है कि वज्र ऋषभ नाराच संहनन और समचौरस संस्थान से जिसका देह शोभायमान है उसे विदेह कहते हैं और भगवान की माता का नाम विदेहदत्ता था, अतः इस दृष्टि से भगवान को विदेह दिन्न भी कहते हैं। 'विच्छड्डिता'-आदि पदों का कल्प सूत्र की वृत्ति में विस्तार से वर्णन किया गया है। अब भगवान द्वारा दिए गए सांवत्सरिक दान का वर्णन करते हुए सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे का सूत्र कहतें है...... I सूत्र // 6 // // 514 // संवच्छरेण होहिड अभिणिक्खमणं तु जिणवरिंदस्स / तो अत्थ संपयाणं पवत्तई
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy