________________ 222 2-1-2-3-5 (425) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन III सूत्रार्थ : साधु या साध्वी जिस गृहस्थ के उपाश्रय-स्थान में ठहरे, उसका नाम और गोत्र पहले ही जान लें। तत्पश्चात् उसके घर में निमंत्रित करने या न करने पर भी अर्थात् बुलाने या न बुलाने पर भी उसके घर का अशनादि चतुर्विध आहार ग्रहण न करे। IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु साधुओं की यह सामाचारी (आचार-मर्यादा) है कि- शय्यातर (मकान मालिक) का नाम-गोत्र आदि जानना चाहिये, ऐसा करने से हि प्राघूर्णकादि श्रमण भिक्षा-गोचरी घूमने के वख्त शय्यातर-गृह का सुख-सुगमता से त्याग कर शकें... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- मकान में ठहरने के पश्चात् शय्यातर के नाम एवं गोत्र तथा उसके मकान आदि का परिचय करना चाहिए। आगमिक परिभाषा में मकान मालिक को शय्यातर कहते हैं। शय्या का अर्थ है- मकान और तर का अर्थ है- तैरने वाला, अर्थात् शय्या+तर का अर्थ हुआ-साधु को मकान का दान देकर संसार-समुद्र से तैरने वाला। शय्यातर के नाम आदि का परिचय करने का यह तात्पर्य है कि- उसके घर को अच्छी तरह पहचान सके। क्योंकि; भगवान ने शय्यातर के घर का आहार-पानी लेने का निषेध किया है। इसका कारण यह रहा है कि- जो कोई गृहस्थ किसी अन्य मत के साधु को ठहरने के लिए स्थान देता था उसे ही उसके आहार-पानी आदि का सारा प्रबन्ध करना पड़ता था। इस तरह वह भिक्ष उसके लिए बोझ रूप बन जाता था। इस कारण कई व्यक्ति निर्दोष मकान होते हुए भी देने से इन्कार कर देते थे। परन्तु, जैन साधु का जीवन किसी भी व्यक्ति पर बोझ रूप नहीं रहा है। इसी कारण भगवानने साधुओं को यह आदेश दिया है कि- जिस समय से शय्यातर के मकान में ठहरें तब से लेकर जब तक उस मकान में रहें तब तक शय्यातर के घर का आहार-पानी आदि ग्रहण न करें अर्थात् मकान का दान देने वाले पर दूसरा किसी तरह का बोझ नहीं डालें। इसलिए शय्यातर के नाम आदि का परिचय करना जरुरी है, जिससे आहारादि के लिए उसके घर को छोड़ा जा सकें। उपाश्रय की योग्यता एवं अयोग्यता के विषय को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं I // 425 // से भिक्खू वा० से जं० ससागारियं सागणियं सउदयं नो पण्णस्स निक्खमणपवेसाए जाव अणुचिंताए तहप्पगारे उवस्सए नो ठा० // 425 //