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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-2 (510) 473 मित्र, ज्ञाति, स्वजन और सम्बन्धि वर्ग को प्रेमपूर्वक भोजन कराया। भोजन आदि कार्यो से - निवृत्त होने के पश्चात् उनके सामने कुमार के नामकरण का प्रस्ताव रखते हुए सिद्धार्थ ने बताया कि यह बालक जिस दिन से त्रिशलादेवी की कुक्षि में गर्भ रुप से आया है तब से हमारे कुल में हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, माणिक, मोती, शंख, शिला और प्रवालादि पदार्थो की अत्याधिक वृद्धि हो रही है। अतः इस कुमार का गुण सम्पन्न ‘वर्धमान' नाम रखते है। जन्म के बाद भगवान महावीर का पांच धाय माताओं के द्वारा लालन-पालन होने लगा। दूध पिलाने वाली धाय माता, स्नान करानेवाली धाय माता, वस्त्रालंकार पहनाने वाली धाय माता, क्रीडा करानेवाली और गोद खिलाने वाली धाय माता, इन 5 धाय माताओं की गोद में तथा मणिमंडित रमणीय आंगन प्रदेश में खेलने लगे और पर्वत गुफा में स्थित चम्पक वृक्ष की तरह विघ्न बाधाओं से रहित होकर यथाक्रम बढ़ने लगे। उसके पश्चात् ज्ञान-विज्ञान संपन्न भगवान महावीर बाल भाव को त्याग कर युवावस्था में प्रविष्ट हुए और मनुष्य सम्बन्धि उदार शब्द, स्पर्श, रस, रुप और गन्धादि से युक्त पांच प्रकार के काम भोगों का उदासीन भाव से उपभोग करते हुए विचरने लगे। IV टीका-अनुवाद : सूत्रार्थ पाठ सिद्ध होने से टीका नहि है...... सूत्रसार: इस सूत्र में बताया गया है कि भगवान महावीर अवसर्पिणी काल के चतुर्थ आरक के 75 वर्ष साढ़े आठ महीने शेष रहने पर ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवानन्दा की कुक्षि में आएं। यहां काल चक्र के सम्बन्ध में कुछ उल्लेख किया गया है। यह हम देखते हैं कि काल (समय) सदा अपनी गति से चलता है। और समय के साथ इस क्षेत्र में (भरत क्षेत्र में) परिस्थितियों एवं प्रकृति में भी कुछ परिवर्तन आता है। कभी प्रकृति में विकास होता है, तो कभी ह्रास होता है। जिस काल में प्रकृति उत्थान से ह्रास की ओर गतिशील होती है उस काल को अवसर्पिणी काल कहते हैं और जिसमें प्रकृति ह्रास से उन्नति की ओर बढ़ती है उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं। प्रत्येक काल चक्र में एक उत्सर्पिणी और एक अवसर्पिणी काल होता है और वे प्रत्येक 6-6 आरक में विभक्त है और 10 कोटा-कोटी (10 करोड़ x एक करोड़) सागरोपम का होता है। इस तरह पूरा काल चक्र 20 कोटा कोटी सागरोपम का होता है। भगवान महावीर अवसर्पिणी कालचक्र के चौथे आरे के—जो 42 हजार वर्ष कम एक कोटा कोटी सागर का है, 75 वर्ष 8 // महीने शेष रहने पर प्राणत नामक 10 वें स्वर्ग के-महाविजय, सिद्धार्थ वर पुण्डरीक, दिक्स्वस्तिक और वर्द्धमान नामक विमान से, अपने
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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