________________ 210 2-1-2-2-15 (420) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इससे स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे सदोष मकान में ठहरने वाले साधु साधुत्व के महापथ से गिर जाते हैं, उनकी साधना शुद्ध नहीं रह पाती। अतः साधु को सदा निर्दोष एवं निरवद्य मकान में ठहरना चाहिए। अब अल्प सावध का वर्णन सूत्रकार महर्षि सुधर्म स्वामी आगे के सूत्र से कहेंगे। सूत्र // 15 // // 420 // इह खलु पाईणं वा०, रोयमाणेहिं अप्पणो सयट्ठाए तत्थ अगारीहिं जाव उज्जालियपुव्वे भवइ, जे भयंतारो तहप्प० आएसणाणि वा० उवागच्छंति, इयरा-इयरेहि पाहुडेहिं एगपक्खं ते कम्म सेवंति, अयमाउसो ! अप्पसावज्जकिरिया यावि भवइ // 9 // एवं खलु तस्स० // 420 // // संस्कृत-छाया : इह खलु प्राच्यादिषु वा रोचमानैः आत्मनः स्वार्थाय तत्र तत्र अगारिभिः यावत् उज्ज्वालितपूर्वं भवति, ये भगवन्तः तथाप्र० आदेशनानि वा० उपागच्छन्ति, इतरेतरेषु प्राभृतेषु एकपक्षं ते कर्म आसेवन्ते, इयं आयुष्मन् ! अल्पसावधक्रिया च अपि / भवति // 9 // एवं खलु तस्य० // 420 // . III सूत्रार्थ : इस संसार में स्थित कुछ श्रद्धालु गृहस्थ जो यह जानते हैं कि साधु को उपाश्रय का दान देने से स्वर्ग आदि फल की प्राप्ति होती है, वे अपने उपयोग के लिए बनाए गए मकान को तथा शीतकाल में जहां अग्नि प्रज्वलित की गई हो ऐसे छोटे-बड़े मकान को सहर्ष साधु को ठहरने के लिये देते हैं। ऐसे मकान में जो साधु ठहरते हैं वे एकपक्ष-पूर्ण साधुता का पालन करते हैं और इसे अल्पसावध क्रिया कहते हैं। IV टीका-अनुवाद : सुगम है, किंतु यहां “अल्प' शब्द अभाव वाचक है... 9... अतः ऐसी निर्दोष वसति उपाश्रयमें रहनेवाले साधुको हि सच्चा साधुपना होता है... यहां 1. कालातिक्रांत, 2. उपस्थान, 3. अभिक्रांत, 4. अनभिक्रांत, 5. वर्ण्य, 6. महावय॑, 7. सावध, 8. महासावद्य, एवं 9. अल्पक्रिया... यह नव प्रकारकी वसति अनुक्रमसे नव सूत्रोंके द्वारा कही गइ है, इन नव में से अभिक्रांत एवं अल्पक्रियावाली वसति साधुओंको ठहरनेके लिये योग्य है, शेष सात प्रकारकी वसति साधुओंको ठहरनेके लिये योग्य नहि है... इति...