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________________ 264 2-1-3-1-8 (452) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन उत्सर्पयेत्, पूर्णा वा नावं उत्-सिचेत्, सन्नं वा नावं उत्पीडयेत् तथाप्रकारां नावं ऊर्ध्वगामिनी वा अधोगामिनी वा तिर्यग्गामिनी वा परं योजनमर्यादायां अर्द्धयोजनमर्यादायां अल्पतरे वा भूयस्तरे वा न दूरुहेत् गमनाय / स: भिक्षुः वा० पूर्वमेव तिर्यक्-सम्पातिमां नावं जानीयात्, ज्ञात्वा सः तं आदाय एकान्तं अपक्रामेत्, अपक्रम्य भण्डकं प्रतिलिखेत्, प्रतिलिख्य एकतः भोजनभण्डकं कुर्यात्, कृत्वा सशीर्षोपरिकां कायां पादौ च प्रमार्जयेत्, सागारं भक्तं प्रत्याख्यायात्, एकं पादं जले कृत्वा एकं पादं स्थले कुर्यात्, ततः संयतः एव नावं दूरुहेत् // 452 // III सूत्रार्थ साधु या साध्वी यामानुयाम विहार करता हुआ यदि मार्ग में नौका द्वारा तैरने योग्य जल हो तो नौका से नदी पार करे। परन्तु इस बात का ध्यान रखे कि यदि गृहस्थ साधु के निमित्त मूल्य देता हो या नौका उधार लेकर या परस्पर परिवर्तन करके या नौका को स्थल से जल में या जल से स्थल में लाता हो, या जल से परिपूर्ण नौका को जल से खाली करके या कीचड़ में फंसी हुई को बाहर निकाल कर और उसे तैयार कर के साधु को उस पर चढ़ने की प्रार्थना करे, तो इस प्रकार की ऊर्ध्वगामिनी, अधोगामिनी या तिर्यग् गामिनी नौका, जो कि उत्कृष्ट एक योजन क्षेत्र प्रमाण में, चलने वाली है या अर्द्ध योजन प्रमाण में चलने वाली है, ऐसी नौका पर थोड़े या बहुत समय तक गमन करने के लिए साधु सवार न हो अर्थात् ऐसी नौका पर बैठ कर नदी को पार न करे। किन्तु, पहले से ही तिर्यग् चलने वाली नौका को जानकर, गृहस्थ की आज्ञा लेकर फिर एकान्त स्थान में चला जाए और वहां जाकर भण्डोपकरण की प्रतिलेखना करके उसे एकत्रित करे, तदनन्तर सिर से पैर तक सारे शरीर को प्रमार्जित करके अगार सहित भक्त पान का परित्याग करता हुआ एक पैर जल में और एक पैर स्थल में रखकर उस नौका पर यत्नापूर्वक चढ़े। IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. यामानुग्राम विहार करे तब मार्ग में नौका से पार उतर शकें ऐसे जलवाली नदी आती है ऐसा जाने और वह नौका भी कीसी गृहस्थ ने साधुओं के लिये खरीदी हुइ है या अन्य के पास से किराये पर ली हुइ है या अदला-बदली की हुइ है इत्यादि जानीयेगा... तथा यदि वह नौका भूमी से लेकर जल में उतारे तब उस नौका में साधु न चढें इत्यादि शेष सूत्र सुगम है... अब कारण '= प्रयोजन होवे तो नौका में बैठने की विधि कहतें हैं...
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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