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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-3-1-8 (452) 265 V . सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह अभिव्यक्त किया गया है कि विहार करते हुए यदि मार्ग में नदी आ जाए और उसे बिना नौका के पार करना कठिन हो तो साधु अपनी मर्यादा का परिपालन करते हुए विवेक एवं यत्नापूर्वक नौका का उपयोग कर सकता है। यदि मुनि को नदी के किनारे खड़ा देखकर कोई गृहस्थ उसे पार पहुंचाने के लिए नाविक को पैसा देता हो या उससे नौका उधार लेता हो या उससे नावका परिवर्तन करता हो, तो साधु को उस नाव पर नहीं बैठना चाहिए। इसी तरह यदि कोई नाविक साधु को नदी से पार करने के लिए अपनी नौका को जल में से स्थल पर लाता हो या स्थल पर से जल में ले जाता हो या कर्दम-किच्चड में फंसी हुई नाव को निकाल कर लाता हो, तो साधु उस नौका पर भी सवार न हो, भले ही वह नाव एक योजन गामिनी हो या इससे भी अधिक तेज गति से चलने वाली क्यों न हो। जिस नौका के लिए गृहस्थ को पैसा देना पड़े या जिसमें साधु के लिए नए रूप से आरम्भ करना पड़े... साधु उस नाव में न बैठे। परन्तु, जो नाव पहले से ही पानी में हो, तो उस नाव से पार होने के लिए वह नाविक से याचना करे और उसके स्वीकार करने पर एकान्त स्थान में जाकर अपने भण्डोपकरणों को एकत्रित करे और अपने शरीर का सिर से लेकर पैर तक प्रमार्जन करे। उसके पश्चात् सागारिक संथारा करके विवेक पूर्वक एक पैर पानी में और एक पैर स्थल पर रखकर यत्ना से नौका पर चढ़े। प्रस्तुत सूत्र में ऊर्ध्वगामिनी, अधोगामिनी और तिर्यग् गामिनी नौकाओं का उल्लेख किया गया है। किंतु साधुओं को ऊर्ध्व और अधोगामिनी नौकाओं में बैठने का निषेध किया गया है। कारणवश केवल तिर्यग् गामिनी नौका पर सवार होने का ही आदेश दिया गया है। निशीथ सूत्र में भी ऊर्ध्व और अधोगामिनी नौकाओं पर सवार होने वाले को प्रायश्चित का अधिकारी बताया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि उस समय आकाश में उड़ने एवं पानी के भीतर चलने वाली नौकाएं भी होती थी। ऊर्ध्वगामी नौका से वर्तमान युग के हवाई जहाज जैसे यान का होना सिद्ध होता है और अधोगामी नौका से पनडुबी का होना भी प्रमाणित होता है। वृत्तिकार ने उक्त तीनों तरह की नौकाओं का कोई स्पष्टीकरण नहीं किया है। अतः आकाश एवं जल के भीतर चलने वाली नौकाओं के निषेध का तात्पर्य तो स्पष्ट रुप से समझ में आ जाता है। इससे निष्कर्ष यह निकला कि साधु तिर्यग् गामिनी (पानी के ऊपर गति करने वाली) नौका पर सवार हो सकता है। प्रस्तुत सूत्र में एक या अर्ध योजन तक पानी में रहने वाली नौका पर सवार होने . का निषेध किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इतनी या इससे अधिक दूरी का मार्ग नौका के द्वारा तय करना नहीं कल्पता।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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