________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-3-31 (539) 527 स्त्रियों की काम विषयक कथा करने से मन में विकार भाव की जागृति होना संभव है और उससे उसका मन एवं विचार संयम-साधना से विपरीत मार्ग की ओर भटक सकता है। और परिणाम स्वरुप वह साधक कभी भी चारित्र से गिर सकता है। इसलिए साधक को कभी काम विकार से संबद्ध स्त्रियों की कथा नहीं करनी चाहिए। __ स्त्रियों के रुप एवं शृंगार का अवलोकन करने की भावना से उनके अंगों को नहीं देखना चाहिए। क्योंकि, मन में रही हुई आसक्ति से काम-वासना के उदित होने को खतरा बना रहता है। अतः साधक को कभी भी अपनी दृष्टि को विकृत नहीं होने देना चाहिए और उसे आसक्त भाव से किसी स्त्री के अंग-प्रत्यंगों का अवलोकन नहीं करना चाहिए। साधु को पूर्व में भोगे गए भोगों का भी चिन्तन-स्मरण नहीं करना चाहिए। क्योंकि, इससे मन की परिणति में विकृति आती है और उससे उपशान्त विकारों को जागृत होने का अवसर भी मिल सकता है। इसी तरह साधक को श्रृङ्गार रस से युक्त या वासना को उद्दीप्त करने वाले उपन्यास, नाटक आदि का भी अध्ययन, श्रवण एवं मनन नहीं करना चाहिए। ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए साधु को सदा प्रमाण से अधिक एवं सरस तथा प्रकाम भोजन भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि प्रतिदिन अधिक आहार करने से तथा प्रकाम आहार करने से शरीर में आलस्य की वृद्धि होगी, आराम करने की भावना जागृत होगी, स्वाध्याय एवं ध्यान से मन हटेगा। इससे उसकी भावना में विकृति भी आ जाएगी। अतः इन दोषों से बचने के लिए साधु को सदा सरस आहार नहीं करना चाहिए तथा प्रमाण से भी अधिक भोजन नहीं करना चाहिए। सादे एवं प्रमाण युक्त भोजन से वह ब्रह्मचर्य का भी ठीक 2 परिपालन * कर सकेगा और साथ में प्रायः बिमारियों से भी बचा रहेगा और आलस्य भी कम आएगा जिससे .. वह निर्बाध रुप से स्वाध्याय एव ध्यान आदि साधना में संलग्न रह सकेगा। यह उत्सर्ग सूत्र है और ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए ही सरस आहार का निषेध किया गया है। अपवाद मार्ग में अर्थात् साधना के मार्ग में कभी आवश्यकता होने पर साधु गुर्वाज्ञा से प्रमाणोपेत सरस आहार स्वीकार भी कर सकता है। जैसे-अरिष्ट नेमिनाथ के 6 शिष्यों ने महाराणी देवकी के घर से सिंह केसरी मोदक ग्रहण किए थे। काली आदि महाराणियों ने अपने तप की प्रथम परिपाटी में पारणे में प्रमाणोपेत विगय (दूध, दही आदि) ग्रहण की थी। भगवान महावीर ने एक महीने की तपस्या के पारणे के दिन परमान्न-क्षीर का आहार ग्रहण किया था। और आशातना के विषय का वर्णन करते हुए आगम में बताया गया है कि यदि शिष्य गुरु के साथ आहार करने बैठे तो वह सरस आहार को शीघ्रता से न खाए। और छेद सूत्रों में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि यदि साधु शरीर को पुष्ट करने की दृष्टि से घी, दूध आदि विगय का सेवन करता है तो उसे प्रायश्चित आता है। इससे स्पष्ट होता है कि