________________ 458 2-2-7-7-1 (508) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 2 अध्ययन - 7 सप्तैककः - 7 - अन्योऽन्यक्रिया ) अब अन्योन्यक्रिया नाम का सातवा अध्ययन (सप्तैकक) कहतें हैं... यहां छठे अध्ययन के बाद सातवे अध्ययन का यह अभिसंबंध है कि- छठे अध्ययन में सामान्य से परक्रिया का निषेध किया था, अब यहां सातवे अध्ययन में गच्छ से निकलकर जिनकल्प आदि स्वीकारनेवाले साधुओं के लिये अन्योन्यक्रिया का निषेध कहना है... अतः इस संबंध से आये हुए इस सातवे अध्ययन के नाम निक्षेप में “अन्योन्यक्रिया" यह नाम है... उनमें "अन्य" पद के निक्षेप के लिये नियुक्तिकार गाथा के उत्तरार्ध से कहतें हैं... नि. 328 अन्य पद के नाम-स्थापना-द्रव्य-क्षेत्र-काल एवं भाव यह छह (6) निक्षेप होतें हैं... उनमें नाम एवं स्थापना सुगम है... अब द्रव्य-अन्य के तीन भेद है 1. तदन्यत् 2. अन्यान्यत् 3. आदेश्यान्यत यह तीनों द्रव्य-पर की तरह जानें... ___ यहां स्थविरकल्पवाले साधु परक्रिया एवं अन्योन्यक्रिया में जयणा करें और गच्छनिर्गत जिनकल्पादि साधु को यह परक्रिया एवं अन्योन्यक्रिया. त्याज्य कही है... जो साधु यतमान याने स्थविरकल्पवाले हैं, वे यतना-जयणा से अन्योन्यक्रिया करें और जो निष्प्रतिकर्म-जिनकल्पादि साधु हैं वे अन्योन्यक्रिया का त्याग करतें हैं... ' - अब सूत्रानुगम में सूत्र इस प्रकार है... I सूत्र // 1 // // 508 // से भिक्खू वा, अण्णमण्ण किरियं अज्झत्थियं संसेइयं नो तं सायए / से अण्णमण्णं पाए आमज्जिज्ज वा० नो तं० / सेसं तं चेव, एयं खलु० जइज्जासि तिबेमि // 508 // II संस्कृत-छाया : सः भिक्षुः वा अन्योन्यक्रियां आध्यात्मिकीं सांश्लेषिकीं न तां स्वादयेत् / सः