________________ 414 2-2-2-2-1 (498) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अप्पबीयं जाव संताणयं तह निसीहियं फासुयं चेइस्सामि, एवं सिज्जागमेणं नेयव्वं जाव उदयप्पसूयाइं। जे तत्थ दुवग्गा तिवग्गा चउवग्गा पंचवग्गा वा अभिसंधारिंति निसीहियं गमणाए, ते नो अण्णमण्णस्स कायं आलिंगिज्ज वा विलिंगिज्ज वा चुंबिज्ज वा दंतेहिं वा नहेहिं वा अच्छिंदिज्ज वा वुच्छिंदिज्ज वा० एयं खलु० जं सव्वटेहिं सहिए समिए सया जएज्जा, सेयमिणं मण्णिज्जासि तिबेमि // 498 / / II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा० अभिकाक्षेत निषीधिकां प्रासुकां गन्तुम्, सः पुनः निषीधिकां जानीयात्- स- अण्डां तथा० अप्रासुकां न चेतयिष्यामि / स: भिक्षुः० अभिकाङ्क्षत निषीधिकां गन्तुम्, सः पुनः निषीधिकां अल्पप्राणां अल्पबीजां यावत् अल्पसन्तानकां, तथा० निषीधिकां प्रासुकां चेतयिष्यामि, एवं शय्यागमेन नेतव्यं, यावत् उदकप्रसूतानि / ये तत्र द्विवर्गाः त्रिवर्गाः चतुर्वग्गाः पञ्चवर्गाः वा अभिसन्धारयन्ति निषीधिकां गन्तुम्, ते न अन्योऽन्यस्य कायं आलिङ्गयेयुः वा विलिङ्गयेयुः चुम्बयेयुः वा. दन्तैः वा नखैः वा आच्छिन्दयेयुः वा विच्छिन्दयेयुः वा० एतत् खलु० यत् सवर्थिः सहितः समितः सदा यतेत, श्रेयः इदं मन्येत इति ब्रवीमि // 498 // III सूत्रार्थ : जो साधु या साध्वी प्रासुक अर्थात् निर्दोष स्वाध्याय भूमि में जाना चाहे तब वह स्वाध्याय भूमि को देखे और स्वाध्याय भूमि अण्डे आदि से युक्त हो तो इस प्रकार की अप्रासुक, अनेषणीय स्वाध्याय भूमि को जान कर कहे कि मैं इसमें नहीं ठहरुंगा। यदि स्वाध्याय भूमि में प्राणी, बीज यावत् जाला आदि नहीं है तो उसे प्रासुक एवं एषणीय जान कर कहे कि मैं यहां पर ठहरुंगा। शेष वर्णन शय्या अध्ययन के अनुसार जानना चाहिए। जैसे जहां पर उदक से उत्पन्न हुए कन्दादिक हों वहां पर भी न ठहरे। उस स्वाध्याय भूमि में गए हुए दो, तीन, चार, पांच साधु परस्पर शरीर का आलिंगन न करें, न विशेष रुप से शरीर का आलिंगन करे, न मुख चुम्बन करें, दान्तों से या नंखों