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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका / 2-1-1-1-4 (338) 19 कुशील, संसक्त एवं यथाच्छंद रूप अपरिहारिक के साथ प्रवेश न करे, क्योंकि- यदि अनेषणीय आहार ग्रहण करे तब उन पासत्यादि की प्रवृत्ति की अनुमोदना हो, और यदि उन सदोष आहार को ग्रहण न करे तब उन पासत्था आदि के साथ कलह हो, अतः इन दोषों को जानकर साधु गृहस्थों के घरों में आहारादि के लिये उनके साथ प्रवेश न करे और निकले भी नही... अब कहतें हैं कि- उन अन्यतीर्थिकादि के साथ दोष लगने के कारण से वडीनीति के लिये स्थंडिल भूमि में भी प्रवेश न करें, क्योंकि- स्थंडिल भूमि के लिये जो अचित्त जल है वह स्वच्छ भी हो और मलीन भी हो, बहोत हो या थोडा भी हो अतः उन से उपघात की संभावना हैं, तथा विहार भूमि में आगमसूत्र के आलावे (आलापक) की वे निंदा करे तब नवदीक्षित साधु असहिष्णु हो तो कलह हो अतः अन्य तीर्थकादि के साथ न तो प्रवेश करे और न निकलें। ___तथा वह साधु एक गांव से व्यामांतर एवं एक नगर से अन्य नगर में जाए तब भी दोष लगने के कारण अन्य तीर्थकादि के साथ न जाएं... क्योंकि- वे साथ में होने से कायिकी (वडीनीति-लघुनीति) का निरोध करने से आत्म विराधना होती है, तथा यदि मल विसर्जन करे तब भी प्रासुक जल लेने से उपघात और अप्रासुक जल लेने से संयम-विराधना हो, इसी प्रकार भोजन में भी दोष लगतें हैं और नवदीक्षित आदि की विप्रतारणादि याने ठगाइ-लालच आदि दोषों की संभावना हैं। . अब उन कुतीथिकादि को दान देने के निषेध के लिये सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहते हैं... V. सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधु के लिए बताया गया है कि- वह गृहस्थ, अन्य मत के साधु संन्यासियों एवं पार्श्वस्थ साधुओं के साथ गृहस्थ के घर में या स्वाध्याय भूमि में प्रवेश न करे और इनके साथ शौच के लिए भी न जाए और न इनके साथ विहार करे। क्योंकि- ऐसा करने से साधु के संयम में अनेक दोष लग सकते हैं। साधु के लिए धनवान एवं सामान्य स्थिति के सभी घर बराबर हैं। वह बिना किसी भेद के अमीर गरीब सबके घरों में भिक्षा के लिए जाता है और एषणीय एवं शुद्ध आहार ग्रहण करता है, ऐसी स्थिति में कभी वह सामान्य घर में गृहस्थ के साथ प्रवेश करे और उस गृहपलि की साधु को आहार देने की स्थिति न हो या इच्छा न हो, परन्तु संगाथ आये हुए गृहस्थ की लज्जा या दबाव के कारण वह साधु को आहार देवे तो इससे साधु के संयम में दोष लगता है अतः साधु को गृहस्थ के साथ किसी के घर में प्रवेश नहीं करना चाहिए।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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