________________ 86 2-1-1-6-1 (365) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 अध्ययन - 1 उद्देशक - 6 . पिण्डैषणा पांचवे उद्देशक के बाद अब छठे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... और यहां परस्पर यह संबंध है कि- पांचवे उद्देशक में श्रमणादिकों को अंतराय न हो अतः गृहप्रवेश का निषेध किया है... अब इस छठे उद्देशक में अन्य प्राणियों को भी अंतराय न हो अतः इस भय से इस छठे उद्देशक में भी प्रवेश निषेध विधि कहतें हैं... I सूत्र // 1 // // 365 // से भिक्खू वा से जं पुण जाणिज्जा- रसेसिणो बहवे पाणा घासेसणाए संथडे संनिवइए पेहाए, तं जहा कुक्कुडजाइयं वा सूयरजाइयं वा अग्गपिंडंसि वा वायसा संथडा संनिवाइया पेहाए सड़ परक्कमे संजया नो उज्जुयं गच्छेज्जा || 365 // II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा सः यत् पुनः जानीयात् - रसैषिणः बहून् प्राणिनः ग्रासैषणार्थं संस्तृतान् संनिपतितान् प्रेक्ष्य तद्-यथा-कुक्कुटजातिकं वा शूकर जातिकं वा अग्रपिण्डे वा वायसान् संस्तृतान् संनिपतिताम् प्रेक्ष्य सति पराक्र मे संयतः न ऋजुना गच्छेत् / / 365 // III सूत्रार्थ : साधु और साध्वी गोचरी जाते समय बहुत से प्राणिओं को आहार की खोज में भूमि पर एकत्रित हुए देखे जैसे कि- कुर्केटजाति के अर्थात् द्विपद और शुकर जाति के अर्थात् चतुष्पद अथवा अयपिंड के लिए कौवे आदि नीचे एकत्रित हुए देखे तब यदि अन्य मार्ग हो तो उस मार्ग से यतना पूर्वक जाए, परंतु उन प्राणियों को भय और अंतराय उत्पन्न हो ऐसे उस मार्ग से गमन न करें | 365 // IV टीका-अनुवाद : वह साधु या साध्वीजी म. भिक्षा के लिये गांव में प्रवेश करने पर देखे कि- बहुत सारे क्षुद्र जंतु-प्राणी भोजन के लिये कहिं शेरी आदि में रहे हुए हैं एवं आहार के लिये इकडे हुए मुर्गे आदि पक्षीजाति तथा सूकर (भंड) आदि चार पांव वाले प्राणियों को देखकर साधु