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________________ 284 2-1-3-2-6 (459) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन अर्गलपाशकानि वा गर्ता: वा दर्यः वा सति पराक्रमे संयतः एव पराक्रमेत्, न ऋजुना० केवली० सः तत्र पराक्रममाण: प्रचलेद् वा प्रपतेत् वा सः तत्र प्रचलन् वा प्रपतन् वा वृक्षान् वा गुच्छान् वा गुल्मान् वा लता: वा वल्ली: वा तृणानि वा, गहनानि वा हरितानि वा अवलम्ब्य अवलम्ब्य उत्तरेत्, ये तत्र प्रातिपथिका: उपागच्छन्ति, तेषां हस्तं वा याचेत, याचित्वा तत: संयतः एव० अवलम्ब्य अवलम्ब्य उत्तरेत्, तत: संयतः एव ग्रामानुग्राम गच्छेत् / स: भिक्षुः वा० ग्रामानुग्रामं गच्छन् अंतरा तस्य यवसानि वा शकटानि वा रथान् वा स्वचक्राणि वा परचक्राणि वा, सेनां वा विरूपरूपां संनिरुद्धां प्रेक्ष्य सति पराक्रमे सं० न उ०, सः परः सेनागतः वदेत्- हे आयुष्मन् ! एष: श्रमण: सेनायाः अभिनिवारकं करोति, तस्य बाहं गृहीत्वा आकर्षय, सः परः बाहं गृहीत्वा आकर्षयेत्, तं न सुमना: स्यात् यावत् समाधिना० ततः संयतः एव ग्रामानुग्रामं गच्छेत् // 459 // III सूत्रार्थ : साधु अथवा साध्वी व्यामानुयाम विचरते हुए मिट्टी और कीचड़ से भरे हुए पैरों को, हरितकाय का छेदन कर, तथा हरे पत्तों को एकत्रित कर उनसे मसलता हुआ मिट्टी को न उतारे, और न हरितकाय का वध करता हुआ उन्मार्ग से गमन करे। जैसे कि- ये मिट्टी और कीचड़ से भरे हुए पैर हरी पर चलने से हरितकाय के स्पर्श से स्वतः ही मिट्टी रहित हो जाएंगे, ऐसा करने पर साधु को मातृस्थान (कपट) का स्पर्श होता है। अतः साधु को इस प्रकार नहीं करना चाहिए। किन्तु, पहले ही हरित से रहित मार्ग को देखकर यत्नापुर्वक गमन करना चाहिए। और यदि मार्ग के मध्य में खेतों के क्यारे हों, खाई हो, कोट हो, तोरण हो, अर्गला और अर्गलापाश हो, गत हो तथा गुफाएं हों, तो अन्य मार्ग के होते हुए इस प्रकार के विषम मार्ग से गमन न करे। केवली भगवान कहते हैं कि यह मार्ग दोष युक्त होने से कर्म बन्धन का कारण है। जैसे कि- पैर आदि के फिसलने तथा गिर पडने से शरीर के किसी अंगप्रत्यंग को आघात पहुंचेगा... तथा जो वृक्ष, गुच्छ-गुल्म और लतायें एवं तृण आदि हरित काय को पकड़ कर चलाना या उतरना है और वहां पर जो पथिक आते हैं उनसे हाथ मांगकर अर्थात् हाथ के सहारे की याचना करके और उसे पकड़कर उतरना है, ये सब दोष युक्त है, इसलिए उक्त सदोष मार्ग को छोड़कर अन्य निर्दोष मार्ग से एक ग्राम से दूसरे ग्राम की ओर प्रस्थान करे। तथा यदि मार्ग में यव और गोधूम आदि धान्य, शकट, रथ, स्वकीय राजा की या पर राजा की सेना चल रही हो, तब नाना प्रकार की सेना के समुदाय को देखकर, यदि अन्य गन्तव्य मार्ग हो तो उसी मार्ग से जाए किन्तु कष्टोत्पादक इस सदोष मार्ग से जाने का प्रयत्न न करे। इस मार्ग से जाने में कष्टोत्पत्ति की सम्भावना है। जैसे कि- जब उस मार्ग से साधु जाएगा तो सम्भव है उसे देखकर कोई सैनिक किसी दूसरे सैनिक को कहे कि आयुष्मन् /
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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