________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 2-1-1-1-1 (335) 11 असंलोक 3. 4. आपात आपात " संलोक अब इन चतुर्भगी में से अनापात-असंलोक एकांत-निर्जन भूमि जैसे कि- उद्यान में या उपाश्रय में अथवा शून्य गृहादि में कि- जहां चींटी आदि के अंडे न हो, गेहुं आदि बीज न हो, दुर्वा आदि हरित-वनस्पति न हो, ओस याने सूक्ष्म जलबिंदु न हो, तथा जहां जल न हो, चींटियों के घर न हो, लीलफूल, पानी, मिट्टी, मकडी के जाले न हो ऐसे बगीचे आदि स्थंडिल भूमि में जाकर ग्रहण किये हुए अशुद्ध आहार को अलग करके एवं सक्तु आदि में उस जंतु को दूर करके शेष शुद्ध आहार-पानी का रागादि दोष रहित वह साधु भोजन एवं पान करें, कहा भी है कि- हे जीव ! बयालीस (42) प्रकार की एषणा स्वरूप गहन संकट से तू बच गया है, किंतु अब इन आहारादि का भोजन करने में राग-द्वेष के चुंगल (छल) में मत फंसना, अर्थात् सावध न रहना... क्योंकि- आहार के प्रति राग हो तो अंगार-दोष... और आहारादि के प्रति द्वेष हो तो धम-दोष लगता है अतः एक मात्र निर्जरा की कामनावाला साधु रागद्वेष से रहित होकर आहारादि वापरें, तथा जो आहारादि अतिशय अशुद्ध होने के कारण से भोजन-पान नहीं करते किंतु उन आहारादि को एकांत-निर्जन भूमि में जाकर परठ (त्यागकर) दें... किंतु कहतें हैं किवह स्थंडिलभमि या तो अग्नि से दग्ध या जली हुई हो, या लोहादि के मलवाली हो, या तुष (फोतरे) वाली हो, या गोमयवाली हो... या अन्य भी कोई ऐसी प्रासुकभूमि हो... वहां जाकर चक्षु से बराबर देखें और रजोहरण से प्रमार्जन करके उन अशुद्ध आहारादि का त्याग करें... यहां प्रत्युपेक्षण और प्रमार्जन के सात भंग = विकल्प होतें हैं... -- 1. अप्रत्युपेक्षित अप्रमार्जित 2. अप्रत्युपेक्षित प्रमार्जित 3. प्रत्युपेक्षित अप्रमार्जित यहां देखे बिना प्रमार्जन करने से त्रस जीवों का एकस्थान से स्थानांतर संक्रमण होने से त्रसजीवों की विराधना होती है... तथा देखने के बाद प्रमार्जन न करने से पृथ्वीकायादि जीवों की विराधना होती है... तथा चौथे प्रत्युपेक्षित-प्रमार्जित भंग में यह और चार विकल्पभंग होतें हैं... . 4. दुष्प्रत्युपेक्षित दुष्प्रमार्जित दुष्प्रत्युपेक्षित सुप्रमार्जित