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________________ 40 . 2-1-1-2-4 (347) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन II संस्कृत-छाया : स: भिक्षुः वा 2 परं अर्धयोजनमर्यादायां सङ्खडिं ज्ञात्वा सङ्खडिप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय / सः भिक्षुः वा प्राचीनां सङ्खडिं ज्ञात्वा प्रतीचीनां गच्छेत् अनाद्रियमाणः, प्रतीचीनां सङ्खडिं ज्ञात्वा प्राचीनां गच्छेत् अनाद्रियमाणः, दक्षिणां सलडिं ज्ञात्वा उदीचीनां गच्छेत् अनाद्रियमाणः, उदीचीनां सङ्खडिं ज्ञात्वा दक्षिणां गच्छेद् अनाद्रियमाणः, यत्रैव सा सवडि: स्यात् तद्-यथा-ग्रामे वा नगरे वा खेटके वा कर्बटके वा मडम्बे वा पत्तने वा आकरे वा द्रोणमुखे वा नैगमे वा आश्रमे वा सन्निवेशे वा यावत् राजधान्यां वा सङ्खडिं सङ्खडिप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय, केवली ब्रूयात्-आदानमेतत् सङ्खडिं सखडिप्रतिज्ञया अभिधारयन् आधाकर्मिकं वा औदेशिकं वा मिश्रजातं वा क्रीतकृतं वा प्रामित्यं वा आच्छेद्यं वा अनिसृष्टं वा अभिहृतं वा आहृत्य दीयमानं भुञ्जीत। असंयत: भिक्षुप्रतिज्ञया क्षुद्रद्वारा: महाद्वाराः कुर्यात्, महाद्वाराः क्षुद्रद्वाराः कुर्यात् समाः शय्याः विषमाः कुर्यात्, विषमाः शय्याः समाः कुर्यात्, प्रवाताः शय्याः निवाता: कुर्यात्, निवाता: शय्या: प्रवाताः कुर्यात्, अन्तः वा बहिः वा उपाश्रयस्य हरितानि छित्त्वा छित्त्वा विदार्य विदार्य संस्तारकं संस्तारयेत्, एषः निर्ग्रन्थः शय्यायाः / तस्मात् सः संयत: निर्ग्रन्थः तथाप्रकारां पुरःसङ्खडिं वा पश्चात्सलडिं वा सङ्खडिं सङ्खडिप्रतिज्ञया न अभिसन्धारयेत् गमनाय, एवं खलु तस्य भिक्षोः यावत् सदा यतः // 347 // III सूत्रार्थ : साधु व साध्वी अर्द्ध योजन प्रमाण संखडि-जीमनवार को जानकर आहार लाभ के निमित्त जाने का संकल्प न करे। यदि पूर्व दिशामें प्रीतिभोज हो रहा है तो साधु उसका अनादर करता हुआ पश्चिम दिशा में जावे और पश्चिम दिशा में हो रहा है तो उसका अनादर करता हुआ पूर्व दिशा को जाए। इसी प्रकार दक्षिण दिशा में हो रहा है तो उसका निरादर करता हुआ उत्तर दिशा को, और उत्तर दिशा में हो रहा है तो उसका आदर न करता हुआ दक्षिण दिशा को जाए। तथा जहां पर संखडी हो, जैसे कि- याम में, नगर में, खेट में, कर्बट में एवं मडंब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, नैगम, आश्रम और सनिवेश, यावत् राजधानी में होनेवाली संखडी में स्वादिष्ट भोजन लाने की प्रतिज्ञा से जाने के लिये मन में इच्छा न करे। केवली भगवान कहते हैं- कि यह कर्म बन्ध का मार्ग है। संखडी में संखडी की प्रतिज्ञा से जाता हुआ साधु यदि वहां जाकर दिए हुए को खाता है तो वह आधाकर्मिक, औद्देशिक, मिश्रजात, क्रीतकृत, उधार लिया हुआ, छीना हुआ, दूसरे की बिना आज्ञा लिया हुआ और सन्मुख लाया हुआ खाता है। तात्पर्य यह है कि- यदि साधु वहां जाएगा तो संभव है कि- उसे सदोष आहार खाना पड़ेगा।
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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