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________________ 488 2-3-12 (520) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन विकुळ = विकृत्य यत्रैव श्रमण: भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रि: आदक्षिणां प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा च श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति च, वन्दित्वा नमस्कृत्य च श्रमणं भगवन्तं महावीरं गृहीत्वा यौव देवच्छन्दकः तत्रैव उपागच्छति, शनैः शनैः पूर्वाभिमुखं सिंहासने निषादयति, शनैः शनैः निषाद्य च शतपाकसहसपाकैः तैलै: अभ्यङ्गयति, गन्धकाषायिकैः उल्लोलयति, उल्लोल्य च शुद्धोदकेन मज्जयति, मज्जयित्वा, यस्य च मूल्यं शतसहस्रेण त्रिपटोलतिक्तिकेन साधिकेन शीतेन गोशीर्ष-रक्तचन्दनेन अनुलिम्पति, अनुलिम्य च ईषत् नि:श्वासवात वाह्य वरनगरपट्टणोद्गतं कुशलनरप्रशंसितं अश्वलालापेलवं छेकाचार्यकनकखचितान्त:कर्म हंसलक्षणं पट्टयुगलं परिधापयति परिधाप्य च हारं अर्द्धहारं उरस्थं नैपथ्यं एकावली प्रालम्बसूत्रं पट्टमुकुटरत्नमाला आबन्धापयति, आबन्धाप्य च ग्रन्थिम = वेष्टिम-पूरिमसङ्घातेन माल्येन कल्पवृक्षं इव समलङ्करोति, समलङ्कृत्य च द्वितीयं अपि महता वैक्रिय समुद्घातेन समवहन्ति, समवहत्य च एकां महतीं चन्द्रप्रभा शिबिकां सहसवाहनिकां विकरुते, तद्यथा ईहामृग-वृषभ-तुरग-नर-मकर-विहग-वानरकुञ्जर-रुरु-शरभ-चमर-शार्दूल-सिंह-वनलताभक्तिचित्रलता-विद्याधरभिथुनयुगलयन्त्रयोगयुक्तां अर्चिःसहस्त्रमालिनीयां सुनिरुपणीयां मिसीमिसन्तरूपकसहस्रकलितां ईषद्भिसमानां भिभिसमानां चक्षुर्लोचनलोकनीयां मुक्ताफल-मुक्ताजालान्तरोपितां तपनीयप्रवर-लम्बूसकप्रलम्बमुक्तादामां हाराऽर्धहारभूषण-समन्वितां (समवनतां) अधिकदर्शनीयां पद्मलताभक्तिचित्रां अशोकलताभक्तिचित्रां कुन्दलताभक्तिचित्रां नानालताभक्तिचित्रां विरचितां शुभां चारुकान्तरूपां नानामणिपञ्चवर्ण-घण्टा-पताकाप्रतिमण्डिताग्रशिखरां प्रसादीयां दर्शनीयां सुरूपाम् // 520 // III सूत्रार्थ : तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी के दीक्षा लेने के अभिप्राय को जानकर भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव और देवियां अपने अपने रुप, वेष और चिन्हों से युक्त होकर तथा अपनी 2 सर्वप्रकार की ऋद्धि, धुति और बल समुदाय से युक्त होकर अपने 2 विमानों पर चढ़ते हैं और उनमें चढ़कर बादर पुद्गलों को छोड़कर सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करके ऊंचे होकर उत्कृष्ट, शीघ्र, चपल, त्वरित और दिव्य प्रधान देवगति से नीचे उतरते हुए तिर्यक् लोक में स्थित असंख्यात द्वीप समुद्रों को उल्लंघन करते हुए जहां पर जम्बूद्वीप नामक द्वीप है वहां पर आते हैं। जम्बूद्वीप में भी उत्तर क्षत्रिय कुण्डपुर सन्निवेश में आकर उसके ईशान कोण में जो स्थान है वहां पर बड़ी शीघ्रता से उतरते हैं। तत् पश्चात् शक्र देवों का इन्द्र देवराज शनैः 2 अपने विमान को स्थापित करता है. फिर शनैः 2 विमान से नीचे उतरता है और एकान्त मे जाकर वैक्रिय समुद्घात करता है। .
SR No.004438
Book TitleAcharang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages608
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size14 MB
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