________________ 248 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आचाराङ्गसूत्रे श्रुतस्कन्ध-२ चूलिका - 1 . अध्ययन - 3 उद्देशक - 1 // ईर्या // द्वितीय अध्ययन कहा, अब तृतीय अध्ययन का प्रारंभ करतें हैं... और यहां परस्पर यह संबंध है कि- प्रथम अध्ययन में धर्म के हतुभूत शरीर के संरक्षण के लिये आहारादि पिंड का स्वरुप कहा, तथा-उस आहारादि पिंड को प्राप्त करने के बाद इहलोक के एवं जन्मांतर के अपाय (उपद्रवों) से बचने के लिये वसति (उपाश्रय) में हि वापरना चाहिये, अतः दुसरे अध्ययन में पिंड एवं वसति की अन्वेषणा के लिये गमनागमन (आना-जाना) होता है, अतः वह गमनागमन कब किस प्रकार करें यह बात कहने के लिये इस तीसरे अध्ययन में "ईर्या" गमन-विधि कहेंगे... इस प्रकार के संबंध से आये हुए इस तीसरे अध्ययन के चार अनुयोग द्वार होतें हैं, उनमें निक्षेपनियुक्ति अनुगम में नाम-निक्षेप के लिये नियुक्तिकार कहतें हैं... "ईर्या" पद के छह (6) निक्षेप होतें हैं... नाम ईर्या स्थापना ईर्या द्रव्य ईर्या 4. क्षेत्र ईर्या काल ईर्या 6. भाव ईर्या.... नाम एवं स्थापना ईर्या सुगम होने से अब द्रव्य ईर्या का स्वरुप कहतें हैं... द्रव्य-ईर्या सचित्त, अचित्त एवं मिश्र के भेद से तीन प्रकार से है... ईर्या याने गति करना चलना... उनमें सचित्त ईर्या याने सचित्त वायु, पुरुष आदि द्रव्यों का चलना-गति करना वह सचित्त द्रव्य ईया... इसी प्रकार परमाणु आदि पुद्गल द्रव्यों का गमन करना वह अचित्त द्रव्य ईया... तथा पुरुष बैठे हुए रथ का गमन वह मिश्र द्रव्य ईया... तथा क्षेत्र ईर्या याने जिस क्षेत्र में गमनागमन करना वह, अथवा जहां बैठकर ईर्या का स्वरुप कहा जाय वह क्षेत्र ईर्या... इसी प्रकार काल-ईर्या भी जानीयेगा... जैसे कि- जिस काल में गमनागमन कीया जाय, वह, अथवा जिस काल में "ईर्या" का स्वरुप कहा जाय वह काल-ईर्या... अब भाव-ईर्या का स्वरुप कहतें हैं... 2. संयम-ईया... उनमें संयम-ईया के सत्तरह (17) भेद है... अथवा असंख्य संयम स्थानों में से कोई एक संयम स्थान में से अन्य संयम स्थान में जाने को संयम-ईर्या कही गई है... तथा चरण-ईफ याने गति करना, चलना, आवागमन